________________ सप्तमी दशा छठी दशा में श्रमणोपासक की प्रतिमाओं का वर्णन किया गया है / अब सूत्रकार इस सातवीं दशा में भिक्षु की प्रतिमाओं का वर्णन करते हैं / क्योंकि जो लघु-कर्मी व्यक्ति सर्व-वृत्ति-रूप चारित्र धारण करना चाहे, उसको भिक्षु-आश्रम में अवश्य प्रवेश . करना पड़ता है / अतः इस दशा में भिक्षु के अभिग्रहों का वर्णन किया जाता है / यही इस दशा का पहली दशाओं से सम्बन्ध है / वैसे तो भिक्षु की अनेक प्रतिमाएं प्रतिपादन की गई हैं / जैसे-समाधि-प्रतिमा, विवेक-प्रतिमा, उपधान-प्रतिमा, प्रतिसंलीनता-प्रतिमा, एकाकी-विहार-प्रतिमा, यवमध्य-प्रतिमा, चन्द्र-प्रतिमा, वज्रमध्य-प्रतिमा, भद्र-प्रतिमा, महाभद्र-प्रतिमा, समुद्र-प्रतिमा, सर्वतोमहाभद्र-प्रतिमा, श्रुत-प्रतिमा, चारित्र-प्रतिमा, वैयावृत्य-प्रतिमा, सप्तपिण्डैषणा–प्रतिमा, सप्तपानैषण-प्रतिमा और कायोत्सर्ग-प्रतिमा आदि / किन्तु इन सब का समावेश श्रुत और चारित्र प्रतिमा में ही हो जाता है / क्योंकि अन्य जितनी भी प्रतिमाएं हैं वे इन दोनों के ही भेद रूप ही हैं / भिक्षु को भेद और उपभेद सहित प्रतिमाओं के द्वारा ही अपने कार्य की सिद्धि करनी चाहिए / अर्थात् इनके द्वारा कर्मों का नाश कर अपने अभीष्ट निर्वाण की प्राप्ति करना ही उसका ध्येय होना चाहिए / इसी विषय को लक्ष्य में रखते हुए सूत्रकार ने सातवीं दशा का निर्माण किया है / उसका आदिम सूत्र यह है : सुयं मे, आउसं, तेणं भगवया एवमक्खायं, इह खलु थेरेहिं भगवंतेहिं बारस भिक्खु-पडिमाओ पण्णत्ताओ / कयरा खलु / 237