________________ 118 दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम् चतुर्थी दशा सुहाए-सुख के लिए. खमाए-सामर्थ्य के लिए निस्सेसाए-कल्याण के लिए अनुगामियत्ताए-अनुगामिकता के लिए अब्भुढेत्ता उद्यत भवइ-हो / से तं-यही विखेवणा-विणए-विक्षेपणा-विनय है / ___मूलार्थ-विक्षेपणा-विनय किसे कहते हैं ? विक्षेपणा-विनय चार प्रकार का प्रतिपादन किया गया है, जैसे-जिसने पहिले धर्म नहीं देखा उसको धर्म-मार्ग दिखाकर सम्यक्त्वी बनाना, सम्यक्त्वी को सर्व-व्रती बनाना, धर्म से गिरे हुए को धर्म में स्थिर करना, उसी धर्म के हित के लिए, सुख के लिए, मोक्ष के लिए और अनुगामिकता के लिए उद्यत होना-यही विक्षेपणा-विनय है। टीका-इस सूत्र में विक्षेपणा-विनय का विषय प्रतिपादन किया गया है और वह भी पूर्व सूत्रों के समान प्रश्नोत्तर रूप में ही / शिष्य प्रश्न करता है-हे भगवन् ! विक्षेपणा-विनय किसे कहते हैं ? गुरू उत्तर देते हैं-हे शिष्य ! जब श्रोता का चित्त पर-समय पर किये जाने वाले आक्षेपों से क्षुब्ध हो जाये उस समय उसको स्व-सयम में स्थिर करना ही विक्षेपना-विनय होता है | यह विक्षेपणा-विनय चार प्रकार का प्रतिपादन किया गया हैं, जैसे-जिन व्यक्तियों ने पहिले सम्यग-दर्शन रूप धर्म को नहीं देखा उनको सम्यग-दर्शन में स्थित करना, अर्थात् उनको सम्यग-दर्शन रूप धर्म सिखाना / किन्तु इस बात का ध्यान रहे कि जिस व्यक्ति के को सम्यग-दर्शन रूप धर्म सिखाना हो, उसके साथ इस प्रकार प्रेम और सभ्यता का व्यवहार करना चाहिए जैसे एक दृष्ट-पूर्व और पूर्व-परिचित अतिथि के साथ किया जाता है / यदि उसके साथ प्रेम पूर्वक सम्भाषण किया जायगा तो वह शीघ्र ही मिथ्या वासना का परित्याग कर सम्यग-दर्शन में स्थित हो सकता है / जब वह सम्यग-दर्शन युक्त हो जाय तो उसको सर्व-वृत्तिरूप चारित्र शिक्षा देकर सहधर्मी बना लेना चाहिए | इसके अनन्तर उस सम्यग-दर्शन रूप धर्म में उसके हित के लिए, सुख के जिए, उसकी अनन्तर उस सम्यग-दर्शन रूप धर्म में उसके हित के लिए, सुख भोग के लिए उद्यत होना चाहिए, क्योंकि जब इस तरह किया जायगो तभी अपना कल्याण और परोपकार हो सकता है / इसी का नाम विक्षेपणा-विनय है। .