________________ 102 दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम् चतुर्थी दशा टीका-इस सूत्र में वचन-सम्पत् का वर्णन किया गया है | गणी के पास वचन-सम्पत् का होना परम आवश्यक है, क्योंकि वचन-सम्पति के होने पर ही धर्म-प्रचार में सफलता हो सकती है / उसके चार भेद हैं जैसे-सर्व प्रथम गणी को. आदेय-वचन-रूप-गुण से युक्त होना चाहिए अर्थात् उसके वचन जनता के ग्रहण करने के योग्य हों / यदि जनता उसके वचनों को स्वीकार नहीं करती तो जान लेना चाहिए कि वह वचन-सम्पत् से वञ्चित है / अतः उसके मुख से सदा ऐसे वचन निकलने चाहिएं जिनको सब प्रमाण रूप से स्वीकार कर लें / दूसरे में गणी को मधुर वचन बोलने होना चाहिए, किन्तु मधुर शब्द का कोकिल के समान श्रुति-प्रिय किन्तु निरर्थक वचनों से तात्पर्य नहीं है अपितु श्रुति-प्रिय होते हुए शब्द सार-गर्भित (अर्थ-पूर्ण) होने चाहिएं, क्योंकि निरर्थक शब्दों से, भले ही वे मधुर क्यों न हों, कोई कार्य सिद्ध नहीं होता / अतः सूत्रकार ने वर्णन किया है कि अर्थपूर्ण, क्षीराश्रवादि-लब्धि-सम्पन्न, दोष-रहित और गुण-युक्त वचन ही मधुर-वचन कहलाता है / ऊपर कहे हुए गुण-समुदाय युक्त होने पर भी क्रोध, मान, माया और लोभ के वशीभूत होकर उच्चारण किया हुआ वचन प्रशंसनीय नहीं होता / अतः सूत्रकार ने वर्णन किया है कि राग द्वेष-आदि के निश्रित (वशीभूत) होकर कभी वचन नहीं कहना चाहिए इन सब को दूर करके ही वचन बोलना उचित है; क्योंकि राग-द्वेष रहित निष्पक्ष वचन ही सर्व-मान्य होता है / किन्तु वचन वही बोलना चाहिए जो सन्देह रहित ओर वचन-गुणों से सुसंस्कृत हो–अर्थात् स्फुट हो, अक्षरों के उचित सन्निपात से युक्त हो, विभक्ति और वचन युक्त हो, परिपूर्ण और अभीष्ट अर्थ-प्रद हो / ऐसा वचन, बोला हुआ, स्वयमेव अपने गुणों को प्रकट कर देता है / इसी का नाम वचन-सम्पत् है। सम्पूर्ण कथन का सारांश यह निकला कि जो वचन आदेय, मधुर, निष्पक्ष, असंदिग्ध और स्फुट हो वही भव्यजनों के कल्याण करने में अपनी योग्यता रखता है। वचन-सम्पदा के अनन्तर अब सूत्रकार वाचना-सम्पत् का वर्णन करते हैं: से किं तं वायणा-संपया ? वायणा-संपया चउ-विहा पण्णत्ता, तं जहा-विजयं-उद्दिसइ, विजयं वाएइ, परिनिव्वावियं वाएइ, अत्थ-निज्जावए यावि भवइ / से तं वायणा-संपया / / 5 / /