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________________ 100 दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम् चतुर्थी दशा पदार्थान्वयः-से किं तं-शिष्य ने प्रश्न किया है कि हे भगवन् ! कौन सी सरीर-संपया-शरीर-सम्पत् है ? गुरू ने उत्तर दिया सरीर-संपया शरीर-सम्पत् चउ-विहा-चार प्रकार की पण्णत्ता-प्रतिपादन की है तं जहा-जैसे-आरोह-लम्बे परिणाह-चौड़े सम्पन्ने-शरीर वाला भवइ-है अवि-और य-शब्द से मानोपेत है / अणोतप्प-सरीरे-घृणास्पद शरीर न हो थिर-संघयणे-संगठन स्थिर हो बहु-प्रायः पडिपुण्णिदिय-प्रतिपूर्णेन्द्रिय भवइ-है / 'अपि' और 'च' शब्द से यावन्मात्र शरीर के शुभ गुणों का ग्रहण करना चाहिए / से तं-यही सरीर-सम्पया-शरीर-सम्पत् है / मूलार्थ-शरीर-सम्पत् किसे कहते हैं ? शरीर-सम्पत् चार प्रकार की प्रतिपादन की गई है जैसे-शरीर की ऊंचाई और विस्तार (चौड़ाई) प्रमाणपूर्वक हो, शरीर लज्जास्पद न हो, शरीर का संगठन दृढ़ हो और प्रायः प्रतिपूर्णेन्द्रिय हो / यही शरीर-सम्पत् है / ___टीका-इस सूत्र में शरीर-सम्पदा विषय का वर्णन किया गया है / जैसे-गणी का शरीर प्रमाण-पूर्वक दीर्घ (लम्बा) और विस्तीर्ण (चौड़ा) होना चाहिए, उसको लज्जायुक्त नहीं होना चाहिए, सुन्दर संगठित होना चाहिए तथा प्रायः प्रत्येक इन्द्रिय से परिपूर्ण होना चाहिए / सूत्र में आए हुए 'च' और 'अपि' शब्द का तात्पर्य है कि जितने भी शरीर के शुभ लक्षण हैं वे सब गणी के शरीर में अवश्य होने चाहिए, क्योंकि सुन्दर संगठित शरीर वाला व्यक्ति यदि श्रुत-ज्ञान से परिपूर्ण हो तो उसका जनता पर एक अलौकिक ही प्रभाव पड़ता है / अतः सूत्रकार ने कहा है कि शरीर में अङ्ग-भङ्गादि कोई दुर्गुण नहीं होने चाहिए क्योंकि इससे जनता के चित्त में उसके प्रति स्वाभाविक घृणा उत्पन्न हो जाती है और अपने मन में भी स्वयं लज्जा उत्पन्न होती है. / प्रायः शब्द से सूचित किया गया है कि प्रतिपूर्णेन्द्रिय होना आवश्यक है, क्योंकि जब प्रत्येक इन्द्रिय पूर्ण होगी और शुभ नाम-कर्म के अनुसार अंगोपांग यथास्थान होंगे तभी दर्शक का चित्त विस्मय और अनुराग से उसकी ओर आकर्षित होगा / _ शरीर का प्रमाण-युक्त दीर्घ (लम्बा) और विस्तीर्ण (चौड़ा) होना इसलिए आवश्यक है कि प्रमाण से अधिक या कम लम्बाई ओर चौड़ाई होने से अन्य सब गुणों के रहने पर भी शरीर में चित्ताकर्षक सौन्दर्य नहीं आ सकता / . प्रश्न यह होता है कि यदि 'गणी पद प्राप्त करने के अनन्तर शरीर विकृत हो जाये
SR No.004500
Book TitleDasha Shrutskandh Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatmaram Jain Dharmarth Samiti
Publication Year2001
Total Pages576
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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