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________________ चतुर्थी दशा हिन्दीभाषाटीकासहितम् / wo हुआ) शास्त्र अपने नाम के अक्षरों के समान कभी विस्मृत न हो, जिस का उच्चारण शुद्ध हो, जो श्रुत-शास्त्र के स्वाध्याय का अभ्यासी हो, अपने समय (मत) और पर (दूसरों के) समय (मत) का विवेचनात्मक आलोडन कर जिसने अपने ज्ञान में विचित्रता उत्पन्न कर दी हो जिससे व्याख्यानादि देते हुए दोनों मतों के गुण-दोष दिखाकर अपने मत का भली भांति परिपोष कर सके, वही श्रुत-सम्पत् का यथार्थ अधिकारी हो सकता है / अपने भावों का सुललित यमक-उपमा आदि अलङ्कारों से सम्यक्-अलङ्कृत भाषा में प्रकट करने का नाम श्रुति-वैचित्र्य है / इसी को श्रुत-ज्ञान की विचित्रता कहते हैं / श्रुत-शास्त्र के उच्चारण के समय उदात्त, अनुदात्त और स्वरित स्वरों का पूर्ण ध्यान रखना चाहिए और पाठ शुद्ध तथा स्वर-पूर्ण होना चाहिए / इसी का नाम घोष-विशुद्धता है / यदि श्रुत घोष-विशुद्धि द्वारा उच्चारण नहीं किया जाएगा तो अर्थ-विशुद्धि भी नहीं हो सकती है / अतः सब से पहिले घोष-विशुद्धि अवश्य होनी चाहिए / जिन सूत्रों का पाठ षड्ज, ऋषभ, गान्धार, मध्यम, पञ्चम, निषाद और धैवत में से जिस-जिस में आता हो उसका उसी स्वर में गान करना चाहिए. तभी वह विशेष लाभ-प्रद और अधिक आनन्द-दायक होता है | अतः सिद्ध यह हुआ कि श्रुत-सम्पत् का वास्तविक अधिकारी वही है जिसने भेद और उपभेदों सहित श्रुत का सम्यक् अध्ययन और मनन किया हो / उक्त उपभेदों के सहित यही श्रुत-सम्पत् है / इस सूत्र में नाम और तद्वान् (नाम वाले) की अभिन्नता सिद्ध की गई है। - श्रुत-सम्पत् के अनन्तर अब सूत्रकार शरीर-सम्पत् का विषय वर्णन करते हैं:' से किं तं सरीर-संपया ? सरीर-संपया चउ-विहा पण्णत्ता, तं जहा-आरोह-परिणाह-संपन्ने यावि भवइ, अणोतप्प-सरीरे, थिर-संघयणे, बहु पडिपुण्णिदिए यावि भवइ / से तं सरीर-संपया / / 3 / / अथ का शरीर-सम्पत् ? शरीर-सम्पच्चतुर्विधा प्रज्ञप्ता, तद्यथा-आरोह-परिणाह-सम्पन्नश्चापि भवति, अनुत्त्रपशरीर, स्थिर-संहननः, बहु प्रतिपूर्णेन्द्रियश्चापि भवति / सैषा शरीर-सम्पत् / / 3 / /
SR No.004500
Book TitleDasha Shrutskandh Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatmaram Jain Dharmarth Samiti
Publication Year2001
Total Pages576
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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