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________________ दशाश्रुतस्कन्धसूत्रम् तृतीय दशा मूलार्थ-शिष्य रत्नाकर के आगे, रत्नाकर की सम-श्रेणी में और रत्नाकर के अत्यन्त समीप होकर गमन करे, खड़ा हो और बैठे तो उस (शिष्य) को आशातना होती है / ___टीका-इस सूत्र में नौ आशातनाएं प्रतिपादन की गई हैं / निरूक्त-कार ने 'आशातना' शब्द की निम्न-लिखित निरुक्ति की है-“तत्र-आयः-सम्यग्दर्शनाद्यवाप्तिलक्षणस्तस्य शातना-खण्डना-निरुक्ता-आशातना' अर्थात् जिससे सम्यग्दर्शनादि की खण्डना हो उसको आशातना कहते हैं | आयः” शब्द के यकार का "पृषोदरादित्वात् लोप हो जाता है / इस प्रकार आशातना शब्द की सिद्धि होती है / जिसको लौकिक व्यवहार में अविनय या असभ्यता कहते हैं, उसी का नाम लोकोत्तर व्यवहार में आशातना है / यद्यपि 'आशातना' शब्द सब तरह की असभ्यताओं के लिए प्रयुक्त होता है किन्तु यहां अविनय प्रस्तुत किया गया है / क्योंकि विनय और सभ्यता प्राणिमात्र को सुख और शान्ति देने वाली हैं, अतः सबके लिए उपादेय हैं। सूत्र में 'रत्नाकर' और 'शैक्ष' शब्द परस्पर विरुद्ध अर्थ में प्रयुक्त किये गए हैं | तात्पर्य यह है-“शैक्षः-अल्पपर्यायो रत्नाकरस्य बहुपर्यायस्य -शैक्ष शब्द से छोटे और रत्नाकर शब्द से बड़े का ग्रहण किया गया है / ___अब यह शंका होती है कि लौकिक और लोकोत्तर छोटे बड़े में परस्पर क्या भेद है? समाधान में कहा जाता है कि लौकिक व्यवहार में प्रायः जन्म और उपाधि की अपेक्षा से 'छोटे' और 'बड़े' माने जाते हैं किन्तु लोकोत्तर व्यवहार में दीक्षा और उपाधि की अपेक्षा 'छोटा' और 'बड़ा' होता है / वृत्तिकार ने इस बात को स्पष्ट कर दिया है-"अवम अगीतार्थो लघुः अर्थात् शिक्षा और दीक्षा में 'छोटा' छोटा और 'बड़ा' बड़ा होता है / तथा आचार्य और उपाध्याय को छोड़कर शेष मुनिवर्ग को 'शैक्ष' शब्द से बुलाया जाता है | ___रत्नाकर उसका नाम है जो कुछ समय पहिले ही दीक्षित हो चुका हो / गुणाधिक्य होने से उसे 'रत्नाकर' अर्थात् 'रत्नों की खान' कहा जाता है / उन्हीं का निर्देश कर इस दर्शों में तेतीस आशातनाएं कथन की गई हैं। तेतीस आशातनाओं में से पहिली नौ-गमन करना, खड़ा होना और बैठना-तीन क्रियाओं के विषय में हैं / जैसे-आचार्य, उपाध्याय और दीक्षा में वृद्ध रत्नाकर के आगे, सम-श्रेणि (बराबरी) और उनके वस्त्र स्पर्श करते हुए पीछे चलने से शिष्य को आशातना
SR No.004500
Book TitleDasha Shrutskandh Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj
PublisherAatmaram Jain Dharmarth Samiti
Publication Year2001
Total Pages576
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_dashashrutaskandh
File Size11 MB
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