________________ PRA - तृतीय दशा हिन्दीभाषाटीकासहितम् / लगती है / किन्तु कारण विशेष होने से कभी इस उत्सर्ग-मार्ग का अपवाद भी हो जाता है / जैसे-यदि गुरू मार्ग नहीं जानता या आगे श्वानादि जीवों की मण्डली बैठी है या! अन्य कोई कारण उपस्थित हो गया है तो रत्नाकर के आगे चलने में कोई दोष नहीं होता / इसी प्रकार यदि गुरू अधिक थक गया हो, या उसकी आंखों में पीड़ा हो या उसको मूर्छा आरही हो तो उसकी बराबरी में चलने से शिष्य को आशातना नहीं होती। तथा पीछे से यदि पशु आदि आरहे हों तो गुरू की रक्षा के जिए उसके वस्त्रादि स्पर्श होने पर भी आशातना नहीं होती। ... किन्तु बिना कारण कभी भी गुरू आदि वृद्धों के वस्त्रादि स्पर्श करते हुए न चलना चाहिए, क्योंकि ऐसा करने से शिष्य के पैरों की रज (धूलि) गुरू को स्पर्श कर सकती है तथा अन्य श्लेष्मादि दोषों की भी सम्भावना हो सकती है / अतः ऊपर कही हुई विधि से ही गमन करना उचित है, तभी शिष्य आशातना से बच सकता है / गमन क्रिया के समान 'बैठना' और 'खड़ा होना' क्रियाएं भी इसी तरह आशातनाओं से बचकर करनी चाहिए अन्यथा अनेक दोष उत्पन्न हो सकते हैं / __ यदि गुरू अत्यन्त थका हुआ हो या शूल आदि पीड़ा से दुःखित हो तो वैद्य की सम्मति और गुरू की आज्ञा से गुरू के समीप बैठकर सेवा करने से आशातना नहीं होती / किन्तु अविनीत भाव से उस (गुरू) के साथ,-गमन करने में खड़ा होने में और बैठने में-अनुचित और असभ्यता का व्यवहार करने से अवश्य ही आशातना होगी। .इस सूत्र से प्रत्येक ज्ञानवान व्यक्ति को शिक्षा लेनी चाहिए कि अपने से बड़ों के साथ सदा सभ्यता का बर्ताव करना उचित है / जैसा हम प्रत्येक दिन देखते हैं / असभ्यता का परिणाम इसी लोक और इसी जीवन में मिल जाता है / अतः अपनी भद्र-कामना करने वाले व्यक्ति को उचित है कि अविनय का सर्वथा परित्याग कर, सदा विनय-शील बना रहे / अब सूत्रकार १०वीं आशातना का विषय वर्णन करते हैं सेहे रायणिएणं सद्धिं बहिया वियार-भूमिं वा निक्खते समाणे तत्थ सेहे पुव्वतरागं आयमइ पच्छा रायणिए भवइ आसायणा सेहस्स / / 10 / /