SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 99
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पौष्टिक भोजन प्रदान करती थी और बैल यात्रा, परिवहन एवं कृषि के काम आते थे और व्यापार का मुख्य अङ्ग थे। इन दोनों के द्वारा तत्कालीन समाज स्वास्थ्य तथा समृद्धि प्राप्त करता था। खेत्तवत्थु क्षेत्र का अर्थ है, खेत अर्थात् खेती करने की भूमि / 'वत्थु' शब्द का संस्कृत रूपान्तर वस्तु एवं वास्तु दोनों प्रकार से किया जाता है। वस्तु का अर्थ है वस्त्र, पात्र, शय्या आदि प्रतिदिन काम में आने वाले उपकरण, और वास्तु का अर्थ है मकान अथवा निवास / 'वास्तुसार' आदि स्थापत्य एवं शिल्प सम्बन्धी ग्रन्थों में वास्तु शब्द का अर्थ भवन किया गया है। प्रस्तुत सूत्र में भी यही अर्थ विवक्षित है। अभयदेव सूरि ने क्षेत्र को ही वस्तु बताया है उनके शब्द निम्नलिखित हैं— 'खेत्तवत्थु त्ति' इह क्षेत्रमेव वस्तु-क्षेत्रवस्तु ग्रन्थान्तरे तु क्षेत्रं च वास्तु च गृहं क्षेत्रवास्तु इति व्याख्यायते / ' अर्थात् यहां क्षेत्र ही वस्तु है। किन्तु अन्य ग्रन्थों में इसकी व्याख्या क्षेत्र और वास्तु के रूप में की गई है। नियत्तण सइएणं—आनन्द ने पांच सौ हल भूमि का परिमाण किया। प्रत्येक हल सौ निवर्तनों* का बताया गया है। निवर्तन का अर्थ है हल चलाते हुए बैलों का मुड़ना। इसी को घुमाव (पञ्जाबी घुमाओं) या खूड भी कहते हैं। अभयदेव-सूरि ने इसका स्वरूप नीचे लिखे अनुसार बताया है नियत्तणसइएणं, त्ति निवर्तनम-भूमिपरिमाण विशेषो देश विशेष प्रसिद्धः ततो निवर्तनशतं कर्षणीयत्वेन यस्यास्ति तन्निवर्तनशतिकं तेन / दिसायत्तिएहिं प्रस्तुत सूत्र में दो प्रकार की नौकाओं का वर्णन है। पहला प्रकार उन नौकाओं का है जो देश, विदेश में यात्रा के लिए काम में आती थीं। दूसरी वे हैं, जो सामान ढोने के काम में आती थीं। आनन्द जल एवं स्थल दोनों मार्गों से व्यापार करता था। जल मार्ग के लिए उसके पास आठ जहाज थे—चार यात्रा के लिए और चार माल ढोने के लिए। स्थल मार्ग के लिए उसके पास एक हजार बैलगाड़ियां थीं—पांच सौ यात्रा के लिए और पांच सौ माल ढोने के लिए। श्रावक के 12 व्रतों में पांचवां परिग्रह-परिमाण व्रत है और छठा दिशा-परिमाण। परिग्रह परिमाण में धनधान्य, पशु, खेत एवं अन्य वस्तुओं के स्वामित्व की मर्यादा की जाती है। छठे दिशा परिमाण व्रत में खेती-व्यापार आदि के लिए क्षेत्र की मर्यादा की जाती है। वहां श्रावक यह निश्चय करता है कि ऊपर नीचे तथा चारों दिशाओं में वह खेती उद्योग वाणिज्य एवं अन्य व्यवसाय के लिए निश्चित क्षेत्र मर्यादा का अतिक्रमण नहीं करेगा। प्रस्तुत सूत्र में छठा व्रत पांचवें के ही अन्तर्गत कर लिया गया है। * निवर्तन—कराणां दशकेन वंशः। निवर्तनं विंशतिवंश संख्यैः क्षेत्रं चतुर्भिश्च भुजैर्निबद्धम् लीलावत्याम् // 6 // श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 64 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy