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________________ सप्तम् उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत(१) उद्र्वणिका विधि मूलम् तयाणंतरं च णं उवभोगपरिभोग विहिं पच्चक्खाएमाणे, उल्लणिया विहिपरिमाणं करेइ। नन्नत्थ एगाए गंध-कासाईए, अवसेसं सव्वं उल्लणियाविहिं पच्चक्खामि // 22 // छाया तदनन्तरं च खलु उपभोगपरिभोगविधिं प्रत्याचक्षाणः, उद्र्वणिका विधि परिमाणं करोति / नान्यत्र एकस्या गन्धकाषायिकाय्याः, अवशेषं सर्वमुद्र्वणिकाविधिं प्रत्याख्यामि। शब्दार्थ तयाणंतरं च णं इसके अनन्तर आनन्द ने, उवभोगपरिभोगविहिं—उपभोग-परिभोग विधि का, पच्चक्खाएमाणे प्रत्याख्यान करते हुए, उल्लणिया विहिपरिमाणं करेइ-भीगे हुए शरीर को पोंछने के काम आने वाले अंगोछे आदि की मर्यादा निश्चित की, एगाए–एक, गंधकासाईए–सुगन्धित एवं लाल अंगोछे के, नन्नत्थ-सिवाय, अवसेसं सव्वं अन्य सब, उल्लणियाविहिं पच्चक्खामि–उद्दवणिका विधि-अंगोछे रखने का प्रत्याख्यान करता हूं। भावार्थ इसके बाद आनन्द ने उपभोग-परिभोग विधि का प्रत्याख्यान करते हुए उव्वणिकाविधि का अर्थात् स्नान के पश्चात् भीगे शरीर को पोंछने के काम में आने वाले अंगोछे का परिमाण किया और गन्धकषाय नामक वस्त्र के अतिरिक्त अन्य सबका प्रत्याख्यान किया। - टीका—उवभोग परिभोग विहि-भोजन, पान, विलेपन आदि से सम्बन्ध रखने वाली जो वस्तुएं केवल एक बार काम में आती हैं, उन्हें उपभोग कहा जाता है और वस्त्र, पात्र, शय्या आदि जो वस्तुएं बार-बार काम आती हैं उन्हें परिभोग कहा जाता है। इसके विपरीत कहीं-कहीं एक बार काम में आने वाली वस्तुओं को परिभोग और अनेक बार काम में आने वाली वस्तुओं को उपभोग कहा गया है। प्रस्तुत व्रत में इन्हीं की मर्यादा विहित है। इसके लिए 26 वस्तुएं गिनाई गई हैं। अभयदेव सूरि ने उपभोग-परिभोग की निम्नलिखित व्याख्या की है—उवभोग परिभोग त्ति—उपभुज्यते पौनः पुन्येन सेव्यत इत्युपभोगो भवनवसनवनितादिः। परिभुज्यत इति परिभोगः आहारकुसुमविलेपनादिः / व्यत्ययो वा व्याख्येय इति। . उल्लणियाविहि—यह शब्द 'द्रु' या 'लु' धातु से बना है। 'द्रु' का अर्थ है—गीला करना, उसके साथ 'उत्' उपसर्ग लगाने से गीलेपन को हटाना अर्थ हो जाता है। 'लु' धातु का अर्थ है हटाना या छीनना। इसी से लूषण,, लूषक आदि शब्द बनते हैं। इस पर वृत्तिकार के नीचे लिखे शब्द हैं."उल्लणियत्ति-स्नान जलार्द्रशरीरस्य जललूषणवस्त्रम्।" अर्थात् स्नान के पश्चात् गीले शरीर को पौंछने वाला तौलिया। श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 65 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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