________________ भगवओ महावीरस्स–श्रमण भगवान् महावीर के, अंतिए—पास में, तप्पढमयाए सर्वप्रधान, थूलगं पाणाइवायं स्थूलप्राणातिपात का, पच्चक्खाइ–प्रत्याख्यान किया। जावज्जीवाए समस्त जीवन के लिए, दुविहं तिविहेणं—दो करण तीन योग से अर्थात्, न करेमि न करूंगा न कारवेमि–न कराऊंगा, मणसा-मन से, वयसा वचन से, कायसा--और काय से। भावार्थ इसके पश्चात् आनन्द गाथापति ने श्रमण भगवान् महावीर के पास अखिल व्रतों में श्रेष्ठ प्रथम व्रत के रूप में स्थूल प्राणातिपात अर्थात् स्थूल हिंसा का दो कारण तीन योग से परित्याग किया। उसने निश्चय किया कि यावज्जीवन मन, वचन और शरीर से स्थूल प्राणातिपात न स्वयं करूंगा और न दूसरों से कराऊंगा। टीका दुविहं तिविहेणं किसी कार्य या वस्तु का परित्याग कई प्रकार से किया जाता है। किसी कार्य को हम स्वयं नहीं करते, किन्तु दूसरे से कराने या अन्य व्यक्ति द्वारा स्वयं करने पर उसके अनुमोदन का त्याग नहीं करते। इस दृष्टि से जैन धर्म में 46 भंग अर्थात् प्रकार बताए गए हैं। करना, कराना तथा अनुमोदन करना, ये तीन करण हैं और मन, वचन तथा काय के रूप में तीन योग हैं। सर्वोत्कृष्ट त्याग तीन करण, तीन योग से होता है, इसका अर्थ है किसी कार्य को मन, वचन तथा काय से न स्वयं करना न दूसरे से कराना और न करने वाले का अनुमोदन करना। इस प्रकार का त्याग समस्त सांसारिक प्रवृत्तियों से निवृत्त मुनि के लिए सम्भव है। त्याग की निम्नतम श्रेणी एक करण, एक योग है अर्थात् अपने हाथ से स्वयं न करना। अन्य कोटियां इन दोनों के मध्यवर्ती हैं। श्रावक अपने व्रतों को साधारणतया दो करण, तीन योग से स्वीकार करता है अर्थात् वह निश्चय करता है कि स्थूल हिंसा आदि पाप कार्यों को मन, वचन और काया के द्वारा मैं न स्वयं करूंगा और न दूसरे से कराऊंगा। जहां तक अनुमोदन का प्रश्न है, उसे छूट रहती है। उपरोक्त 46 भंग अथवा प्रकारों में प्रस्तुत भंग का 40 वां स्थान है, जो 23 अर्थात् दो और तीन के अङ्क द्वारा प्रकट किया जाता है। . थूलगं पाणाइवायं—जैन धर्म में जीवों का विभाजन दो श्रेणियों में किया गया है। साधारण कीड़े-मकोड़ों से लेकर मनुष्य पर्यन्त जो जीव स्वेच्छानुसार चल-फिर या हिल सकते हैं, उन्हें त्रस कहा गया है। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु तथा वनस्पति के जीव स्थावर कहे गये हैं। स्थूल हिंसा से तात्पर्य है त्रस जीवों की हिंसा। आनन्द श्रावक ने भगवान से यह व्रत ग्रहण किया कि निरपराधी चलने-फिरने वाले प्राणियों की मैं हिंसा नहीं करूंगा, इसलिए उसने दो करण और तीन योग से मोटी हिंसा का परित्याग किया। श्रावक को स्थावर जीवों की हिंसा का पूर्णरूपेण परित्याग नहीं होता। मुनि को स्थावर तथा त्रस दोनों की हिंसा का पूर्णतया परित्याग होता है / | श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 86 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन /