________________ छाया ततः खलु स आनन्दो गाथापतिः श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य अन्तिके धर्मं श्रुत्वा निशम्य हृष्टस्तुष्टः यावदेवमवादीत् श्रद्दधामि खलु भदन्त! नैर्ग्रन्थ्यं प्रवचनं, प्रत्येमि खलु भदन्त ! नैर्ग्रन्थ्यं प्रवचनं, रोचते मे खलु भदन्त ! नैर्ग्रन्थ्यं प्रवचनम् / एवमेतद् भदन्त! तथ्यमेतद् भदन्त! अवितथमेतद् भदन्त! इष्टमेतद् भदन्त! प्रतीष्टमेतद् भदन्त! इष्टप्रतीष्टमेतद् भदन्त! तद् यथैतद् यूयं वदथेति कृत्वा, यथा खलु देवानुप्रियाणामन्तिके बहवो राजेश्वर-तलवर-माडम्बिक-कौटुम्बिक-श्रेष्ठिसेनापति-सार्थवाह प्रभृतयो मुण्डीभूय आगाराद् अनगारतां प्रव्रजिताः, नो खलु अहं तथा शक्नोमि मुण्डो यावत् प्रव्रजितुम् / अहं खलु देवानुप्रियाणामन्तिके पञ्चाणुव्रतिकं सप्तशिक्षाव्रतिकं द्वादशविधं गृहिधर्मं प्रतिपत्स्ये / यथासुखं देवानुप्रिय! मा प्रतिबन्धं कुरु / शब्दार्थ तए णं से तत्पश्चात्, आणंदे गाहावई समणस्स भगवओ महावीरस्स—आनन्द गाथापति श्रमण भगवान् महावीर के, अंतिए—पास, धम्मं धर्म को, सोच्चा–सुनकर, निसम्म हृदय में धारण करके, हट्ठ तुटुंजाव एवं वयासी हृष्ट-तुष्ट यावत् प्रसन्न होकर इस प्रकार बोला, सद्दहामि णं, भंते ! णिग्गंथं पावयणं हे भगवन्! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करता हूं, पत्तियामि णं भंते! णिग्गंथं पावयणं हे भगवन्! निर्ग्रन्थ प्रवचन पर मैं विश्वास करता हूँ। रोएमि णं भंते ! णिग्गंथं पावयणं हे भगवन् ! निर्ग्रन्थ प्रवचन मुझे अच्छा लगता है। एवमेयं भंते ! हे भगवन् (सत्य का स्वरूप) ऐसा ही है, तहमेयं भंते! भगवन्! यही तथ्य है, अवितहमेयं भंते! हे भगवन्! यह यथार्थ है। इच्छियमेयं भंते! हे भगवन्! यह अभिलषणीय है, पडिच्छियमेयं भंते! हे भगवन्! यह अभीप्सनीय है, इच्छियपडिच्छियमेयं भंते! हे भगवन् यह अभिलषणीय तथा अभीप्सनीय है। से जहेयं तुब्भे वयह—यह प्रवचन ठीक वैसा ही है जैसा आपने कहा है। त्ति कटु–अतः, जहा णं देवाणुप्पियाणं अंतिए—जिस प्रकार देवानुप्रिय के पास, बहवे राईसर-तलवर-माडंबिय-कोडुंबिय-सेट्ठिसेणावई-सत्यवाहप्पभिइया बहुत से राजा-ईश्वर-तल्वर-माडम्बिक-कौटुम्बिक-श्रेष्ठी-सेनापति- सार्थवाह आदि; मुण्डा भविता मुण्डित होकर, अगाराओ अणगारियं पव्वइया घर छोड़कर मुनि बने, नो खलु अहं तहा संचाएमि मुण्डे जाव पव्वइत्तए मैं उस प्रकार मुण्डित यावत् प्रव्रजित होने में समर्थ नहीं हूं। अहं णं देवाणुप्पियाणं अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्त सिक्खावइयं मैं तो देवानुप्रिय के पास पांच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रत, इस प्रकार, दुवालसविहं गिहि धम्मं द्वादशविध गृहस्थ धर्म को, पडिवज्जिस्सामि स्वीकार करूंगा। अहासुहं देवाणुप्पिया भगवान ने कहा, हे देवानुप्रिय ! जैसे तुमको सुख हो वैसे करो, मा पडिबन्धं करेह—विलम्ब मत करो। ___ भावार्थ तत्पश्चात् आनन्द गाथापति श्री भगवान महावीर स्वामी के पास धर्मोपदेश सुनकर हृष्ट-तुष्ट एवं प्रसन्न होकर इस प्रकार कहने लगा—भगवन् ! मैं निर्ग्रन्थ प्रवचन पर श्रद्धा करता हूं, विश्वास करता हूं, वह मुझे अच्छा लगता है। भगवन्! यह ऐसा ही है जैसा आपने कहा। निर्ग्रन्थ | श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 87 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन