________________ शब्दार्थ-तए णं तदनन्तर, समणे भगवं महावीरे-श्रमण भगवान् महावीर ने, आणंदस्स गाहावइस्स—आनन्द गाथापति को, तीसे य महइ महालियाए परिसाए—उस महनीय परिषद् में, जाव —यावत्, धम्म कहा—धर्मकथा कही, परिसा पडिगया उपदेशानन्तर परिषद् चली गई, राया य गओ राजा भी चला गया। ___ भावार्थ तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने आनन्द गाथापति तथा उस महती परिषद् को धर्म उपदेश दिया। धर्म प्रवचन के पश्चात् परिषद् चली गई और जितशत्रु राजा भी चला गया। टीका—इस सूत्र में भगवान की धर्मकथा का उल्लेख किया गया है। भगवान महावीर ने आनन्द गाथापति और जितशत्रु राजा आदि प्रधान पुरुषों की महासभा में धर्मकथा की। उसका विस्तृत वर्णन औपपातिक सूत्र में किया गया है। भगवान् ने सर्वप्रथम आस्तिकवाद का निरुपण किया। जैन दर्शन के अनुसार लोक, अलोक, जीव, अजीव, पुण्य-पाप; आश्रव-संवर, निर्जरा, बन्ध और मोक्ष रूप पदार्थों का वास्तविक अस्तित्व है। जैन शास्त्रों में इनका नय और प्रमाणों द्वारा निरूपण किया गया है। प्रत्येक पदार्थ स्वकीय द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की दृष्टि से अस्ति अर्थात् विद्यमान है और पर द्रव्य आदि की अपेक्षा से नास्ति अर्थात् अविद्यमान है। इसका विस्तृत वर्णन सप्तभङ्गी न्याय द्वारा किया गया है। भगवान् ने सम्यग् दर्शन, सम्यग् ज्ञान, सम्यक् चारित्र और तप का मोक्ष मार्ग के रूप में निरुपण किया है। साथ ही चार गतियों, चार कषायों, चार संज्ञाओं, षड् जीवनिकायों तथा चार विकथाओं अर्थात् स्त्रीविकथा, भक्तविकथा, देशविकथा तथा राजविकथा का विस्तारपूर्वक वर्णन किया गया है। इसके अतिरिक्त चार प्रकार की धर्म कथाओं का स्वरूप बताया गया है, वे इस प्रकार हैं—आक्षेपणी, विक्षेपणी, संवेगनी और निवेदनी। उक्त चार धर्म कथाओं का श्रीठाणाङ्ग सूत्र में विस्तार से प्रतिपादन किया गया है। धर्मोपदेश श्रवण के अनन्तर आनन्द की प्रतिक्रियामूलम् तए णं से आणंदे गाहावई समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धर्म सोच्चा निसम्म हट्ठ-तुट्ठ जाव एवं वयासी सद्दहामि णं, भंते! णिग्गंथं पावयणं, पत्तियामि णं, भंते! णिग्गंथं पावयणं, रोएमि णं, भंते! निग्गंथं पावयणं, एवमेयं, भंते! तहमेयं, भंते! अवितहमेयं, भंते! इच्छियमेयं, भंते! पडिच्छियमेयं, भंते! इच्छिय-पडिच्छियमेयं, भंते! से जहेयं तुब्भे वयह त्ति कटु, जहा णं देवाणुप्पियाणं अंतिए बहवे राईसर तलवर-माडंबिय-कोडुम्बिय-सेट्ठि-सेणावई सत्थवाहप्पभिइआ मुण्डा भवित्ता आगराओ अणगारियं पव्वइया, नो खलु अहं तहा संचाएमि मुंडे जाव पव्वइत्तए। अहं णं देवाणुप्पियाणं अंतिए पंचाणुव्वइयं सत्त सिक्खावइयं दुवालसविहं गिहिधम्म पडिवज्जिस्सामि / अहासुहं, देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं करेह // 12 // श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 86 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन /