________________ वग्गुरा परिक्खित्ते मनुष्य समूह से घिरा हुआ, पायविहारचारेणं पैदल ही चलता हुआ, वाणियग्गामं नयरं मज्झं मज्झेणं निग्गच्छइ वाणिज्य ग्राम नगर के बीच होता हुआ निकला, निग्गच्छित्ता—निकल कर, जेणामेव दूइपलासे चेइए जहाँ दूतिपलाश चैत्य था, जेणेव समणे भगवं महावीरे—जहाँ श्रमण भगवान् महावीर विराजते थे। तेणेव उवागच्छइ वहाँ आया, उवागच्छित्ता–आकर, तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ–तीन बार दाहिनी ओर से प्रदक्षिणा की, करेत्ता प्रदक्षिणा करके वंदइ नमंसइ-वन्दना की और नमस्कार किया। जाव यावत्, पज्जुवासइ—पर्युपासना की। __ भावार्थ राजा आदि नगर के प्रमुख जनों को भगवान् की वन्दना के लिए जाते देखकर आनन्द को ज्ञात हुआ कि महावीर स्वामी नगर के बाहर उद्यान में ठहरे हुए हैं। उसके मन में विचार आया कि मुझे भी भगवान के दर्शनार्थ जाना चाहिए और विधिपूर्वक उपासना करनी चाहिए, इससे महान् फल की प्राप्ति होगी। यह विचार कर उसने स्नान किया, शुद्ध एवं सभा में प्रवेश करने योग्य मङ्गल वस्त्र पहने, अल्प परन्तु बहुमूल्य आभूषणों द्वारा शरीर को विभूषित किया। इस भाँति सुसज्जित होकर वह अपने घर से निकला। कोरंट पुष्पों की माला से अलंकृत छत्र धारण किया और जन समुदाय से घिरा हुआ, पैदल ही वाणिज्यग्राम नगर के बीचों-बीच होता हुआ, दूतिपलाश चैत्य में जहाँ भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे वहां पहुंचा। वहाँ जाकर भगवान् महावीर को तीन बार प्रदक्षिणा की, वन्दना तथा नमस्कार किया, यथाविधि पर्युपासना की। ___टीका सूत्र में ‘यावत्' शब्द से निम्नलिखित पाठ की ओर संकेत किया गया है— “समणं भगवं महावीरं वंदामि नमसामि सक्कारेमि सम्माणेमि कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं विणएणं...।" भगवान् की वन्दना करते समय उनकी इस प्रकार स्तुति की जाती है—आप कल्याण करने से कल्याण रूप हैं, दुःखों और विघ्नों को उपशमन करने से मङ्गल रूप हैं, तीन लोक के नाथ होने से आप आराध्य देव स्वरूप हैं, विशिष्ट ज्ञानवान् हैं अथवा चित्तशुद्धि के हेतु होने से आप चैत्य-ज्ञान स्वरूप हैं। उक्त चार पदों की व्याख्या राजप्रश्नीय सूत्रान्तर्गत सूर्याभदेव के वर्णन में आचार्य मलयगिरि ने निम्न प्रकार की है—“कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं पज्जुवासामि, कल्याणं कल्याणकारित्वात्, मंगलं दुरितोपशमकारित्वात्, देवतां देवं त्रैलोक्याधिपतित्वात्, चैत्यं सुप्रशस्तमनोहेतुत्वात् पर्युपासितुम् सेवितुम् / " भगवान की धर्मकथा का वर्णनमूलम् तए णं समणे भगवं महावीरे आणंदस्स गाहावइस्स, तीसे य महइ-महालियाए परिसाए जाव धम्मकहा। परिसा पडिगया, राया य गओ // 11 // छाया ततः खलु श्रमणो भगवान् महावीरः आनन्दाय गाथापतये तस्यां च महातिमहत्यांपरिषदि यावद् धर्मकथा। परिषत् प्रतिगता, राजा च गतः। | श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 85 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन