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________________ 3. दुर्विदग्धा परिषद्-मिथ्या अहंकार से युक्त, तत्त्व बोध से रहित एवं दुराग्रही व्यक्तियों की सभा 'दुर्विदग्धा' परिषद् कही जाती है। आनन्द का भगवान के दर्शनार्थ जानामूलम् तए णं से आणंदे गाहावई इमीसे कहाए लद्धढे समाणे “एवं खलु समणे जाव विहरइ, तं महप्फलं, जाव गच्छामि णं। जाव पज्जुवासामि" एवं संपेहेइ, संपेहित्ता बहाए, सुद्धप्पावेसाइं मंगलाई वत्थाई पवरपरिहिए, अप्पमहग्घाभरणालंकिय सरीरे सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमइ, पडिनिक्खमित्ता सकोरेण्ट मल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं मणुस्स वग्गुरा परिक्खित्ते पायविहारचारेणं वाणियग्गामं नयरं मज्झं मझेणं निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणामेव दूइपलासे चेइए, जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदई नमसइ जाव पज्जुवासइ // 10 // छाया–ततः खलु स आनन्दो गाथापतिरस्यां कथायां लब्धार्थः सन्, “एवं खलु श्रमणो यावद् विहरति, तन्महत् फलम्, यावद् गच्छामि खलु यावत् पर्युपासे' एवं सम्प्रेक्षते, सम्प्रेक्ष्य स्नातः, शुद्धप्रवेश्यानि माङ्गल्याणि वस्त्राणि प्रवरपरिहितः, अल्पमहर्घाभरणालंकृतशरीरः स्वकात् गृहात् प्रतिनिष्कामति, प्रतिनिष्क्रम्य सकुरण्टमाल्यदाम्ना छत्रेण ध्रियमाणेन मनुष्यवागुरा परिक्षिप्तः पादविहारचारेण वाणिज्यग्रामं नगरं मध्यं मध्येन निर्गच्छति, निर्गत्य यत्रैव दूतिपलाशचैत्यम्, यत्रैव श्रमणो भगवान् महावीरस्तत्रैवोपागच्छति, उपागत्य त्रिकृत्वः आदक्षिणं प्रदक्षिणां करोति, कृत्वा वन्दते नमस्यति, यावत् पर्युपास्ते। - शब्दार्थ तए णं तदनन्तर, से वह, आणंदे गाहावई—आनन्द गाथापति, इमीसे कहाए इस कथा में, लद्धठे समाणे लब्दार्थ हुआ—अर्थात् आनन्द को भी यह ज्ञात हुआ कि, एवं खलु समणे जाव विहरइ–चम्पा के बाहर दूतीपलाश उद्यान में श्रमण भगवान महावीर पधारे हैं, तं महप्फलं—महान फल होगा यदि मैं, जाव गच्छामि णं यावत् भगवान् के दर्शन करने जाऊं, जाव—यावत्, पज्जुवासामि—और उपासना करूं, एवं संपेहेइ–आनन्द ने इस भाँति विचार किया, संपेहित्ता विचार करके, पहाए—स्नान किया, सुद्धप्पा-वेसाई मंगलाई वत्थाई-और शुद्ध तथा सभा में प्रवेश करने योग्य माङ्गलिक वस्त्र, पवर परिहिए—भलीभाँति पहने, अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरे—और अल्प किन्तु बहुमूल्य आभूषणों से शरीर को अलंकृत किया। सयाओ गिहाओ पडिणिक्खमइ–इस प्रकार सज्जित होकर वह अपने घर से निकला। पडिनिक्खमित्ता—निकलकर, सकोरेंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिज्जमाणेणं—कुरण्ट पुष्पों की माला से युक्त छत्र धारण किये, मणुस्स श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 84 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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