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________________ आपुच्छणिज्जे परामर्श का, पडिपुच्छणिज्जे और बार-बार पूछने का विषय था। सयस्सवि य णं कुडुम्बस्स तथा वह अपने परिवार का भी, मेढी—मेढी अर्थात् काष्ठदण्ड के समान, पमाणं—प्रमाण, आहारे—आधार, आलंबणं—आलम्बन, चक्खू–चक्षु स्वरूप, मेढीभूए केन्द्र भूत काष्ठ दण्ड था, जाव—यावत्, सव्व कज्ज वड्ढावए यावि होत्था—सब कार्यों में प्रेरक था। भावार्थ-नगर के राजा, सेनापति, सार्थवाह आदि प्रतिष्ठित व्यक्ति आनन्द से प्रत्येक बात में परामर्श लिया करते थे। विविध कार्यों, योजनाओं, मन्त्रणाओं, कौटुम्बिक प्रश्नों, कलङ्क या दोष आदि गोपनीय बातों, अनेक प्रकार के रहस्यों, निश्चयों, निर्णयों तथा लेन-देन आदि से सम्बन्ध रखने वाले व्यवहारों में, उससे पूछते रहते थे और उसकी सम्मति को महत्वपूर्ण मानते थे। वह अपने कुटुम्ब का भी स्तम्भ के समान आधारभूत था, उसका आलम्बन अर्थात् सहारा था और चक्षु अर्थात् पथ-प्रदर्शक 'मेढी' अर्थात् केन्द्र स्तम्भ था। इतना ही नहीं, वह समस्त अनुष्ठानों का प्रेरक था / टीका इस सूत्र में यह बताया गया है कि आनन्द का समाज में क्या स्थान था। नगर के प्रतिष्ठित व्यक्ति प्रत्येक बात में उससे परामर्श करते थे। उसकी सम्मति को बहुमूल्य मानते थे। स्वजन-सम्बन्धियों का तो वह एकमात्र आधार, सहारा और पथप्रदर्शक था। . . मेढी उस काष्ठदण्ड को कहते हैं जो खलियान के बीच गाड़ दिया जाता है और गेहूँ आदि धान्य निकालने के लिए बैल जिसके चारों ओर घूमते हैं। आनन्द को भी मेढी बताया गया है अर्थात् वह समस्त कार्यों के लिए केन्द्रभूत था, उसी को मध्य में रखकर अनेक प्रकार के लौकिक अनुष्ठान किये जाते थे। मेधिः-ब्रीहि-यव-गोधू-मादिमर्दनार्थं खले स्थापितो दादिमयः पशुबन्धनस्तम्भः। यत्र पंक्तिशो बद्धा बलीवदयो ब्रीह्यादिमर्दनाय परितो भ्राम्यन्ति तत्सादृश्यादयमपि मेधिः। गाथापति आनन्द अपने कुटम्ब के मेधि के समान थे अर्थात् कुटुम्ब उन्हीं के सहारे था, वे ही उसके व्यवस्थापक थे। मूल पाठ में 'वि' अपि-शब्द है उसका तात्पर्य यह है कि वे केवल कुटुम्ब के ही आश्रय न थे वरन् समस्त लोगों के भी आश्रय थे, जैसा कि ऊपर बताया जा चुका है। आगे भी जहाँ-जहाँ 'वि' अपि–आया है वहां सर्वत्र यही तात्पर्य समझना चाहिए। सूत्र में आनन्द को चक्षु बताया है। इसका यह भाव है—जिस प्रकार चक्षु पदार्थों का प्रकाशक है, उसी प्रकार आनन्द भी सकल पदार्थों का प्रदर्शक था। मेधि, प्रमाण, आधार, आलम्बन और चक्षु इन शब्दों के साथ भूत शब्द लगाने से वे सब उपमावाची बन जाते हैं। __ आनन्द को 'सव्वकज्ज वड्डावए' अर्थात् सब कार्यों का प्रेरक या बढ़ाने वाला बताया गया है। जो व्यक्ति अन्य लोगों के काम आता है वह माननीय हो जाता है। श्री उपासक दशांग म / 76 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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