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________________ टीका प्रस्तुत पाठ में धन का परिमाण हिरण्य-कोटि के रूप में बताया गया है। साधारणतया इसका अर्थ सुवर्ण किया जाता है। प्रतीत होता है, उस समय हिरण्य नाम की मुद्रा प्रचलित होगी। यह शुद्ध सोने की हुआ करती थी, इसका तोल 32 रत्ती होता था। उत्तरवर्ती काल में शकों के आने पर इसी को दीनार के रूप में प्रचलित किया गया। आनन्द के पास चार व्रज थे और प्रत्येक व्रज में दस हजार गायें थीं। यहाँ गाय शब्द समस्त पशुधन का बोधक है। . ___ संस्कृत टीका में आनन्द को प्रदीप्त कहा गया है अर्थात् वह दीपक के समान प्रकाशमान था / जिस प्रकार दीपक में तेल, बत्ती और शिखा होते हैं तथा वायुरहित स्थान में वह स्थिर होकर प्रकाश देता है उसी प्रकार आनन्द भी स्थिर होकर सबको प्रकाश दे रहा था। उसकी सम्पत्ति एवं वैभव की तुलना तेल तथा बत्ती से की गई है। उदारता, तेजस्विता आदि गुणों की शिखा से और संयमी जीवन एवं मर्यादा पालन की वायु रहित स्थान से / मूल सूत्र में उसके जीवन को दो शब्दों द्वारा प्रकट किया गया है अर्थात् वह आढ्य था और अपरिभूत था। आद्य शब्द भौतिक, सामाजिक तथा आध्यात्मिक सम्पत्ति को प्रकट करता है, और अपरिभूत शब्द उसके प्रभाव को। इसका अर्थ है, आनन्द को कहीं भी अपमानित या निराश नहीं होना पड़ता था। वह कहीं भी असफल नहीं होता था। ये दोनों गुण शक्तिशाली व्यक्तित्व के आवश्यक अङ्ग हैं। आनन्द का समाज में स्थान-. मूलम्—से णं आणंदे गाहावई बहूणं राईसर जाव सत्थवाहाणं बहूसु कज्जेसु य कारणेसु य मंतेसु य कुडुम्बेसु य गुज्झेसु य रहस्से य निच्छएसु य ववहारेसु य आपुच्छणिज्जे पडिपुच्छणिज्जे, सयस्सवि य णं कुडुम्बस्स मेढी, पमाणं, आहारे, आलंबणं, चक्खू मेढीभूए जाव सव्व कज्जवड्ढावए यावि होत्था // 5 // - छाया स खलु आनन्दो गाथापतिः बहूनां राजेश्वराणां यावत् सार्थवाहानां बहुषु कार्येषु च कारणेषु च मन्त्रेषु च कुटुम्बेषु च गुह्येषु च रहस्येषु च निश्चयेषु च व्यवहारेषु च आप्रच्छनीयः परिप्रच्छनीयः स्वकस्यापि च खलु कुटुम्बस्य मेधिः, प्रमाणम्, आधारः, आलम्बनम्, चक्षुर्मेधिभूतो यावत् सर्वकार्यवर्धकश्चापि आसीत्। * शब्दार्थ से णं आणंदे गाहावई—वह आनन्द गाथापति, बहूणं राईसर जाव सत्थवाहाणं—बहुत से राजा-ईश्वर यावत् सार्थवाहों का, बहूसु–अनेक, कज्जेसु य—कार्यों में, कारणेसु य—कारणों में, मंतेसु य–विचार विमर्शों में, कुडुम्बेसु य—कौटुम्बिक समस्याओं में, गुज्झेसु य—गुह्य बातों में, रहस्सेसु य—रहस्यों में, निच्छएसु य–निश्चयों में, ववहारेसु य और व्यवहासें में, श्री उपासक दशांग सू म / 78 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन .
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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