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________________ धनधान्य-पशुवंश समुन्नत्यादिना। अहो ! धन्यमिदं सकलसमृद्धिसम्पन्न गृहमित्येवं प्रशंसितत्वात् प्रतिष्ठिता भवतीति गाथा प्रशस्ततमं गृहं तस्याः पतिः अध्यक्षः स तथा क्षेत्र-वास्तु-हिरण्य-पशुदास-पौरुष समलङ्कृतः सद्गृहस्थ इत्यर्थः, परिवसति / नित्यं सर्वतोभावेन वा वसति स्मेति शेषः।" धन, धान्य और समृद्धि के कारण होने वाली प्रशंसा को गाथा कहते हैं और उसके स्वामी को गाथापति कहा जाता है। अथवा गाथा शब्द का अर्थ है वह सम्पन्न घर जिसकी धन-धान्य, पशुवंश आदि के रूप में होने वाली सर्वतोमुखी समृद्धि को देखकर सर्वत्र प्रशंसा होती है। ‘यावत्' शब्द से अनेक अन्य बातें प्रकट की गई हैं। इसका अर्थ है कि आनन्द गाथापति के पास भवन, शयन, रथ, शकट तथा अन्य वाहनों की विशाल संख्या थी। सोना, चाँदी बहुमूल्य धातुओं का पर्याप्त संग्रह और पशु-धन भी विपुल परिमाण में था। दास-दासियों की विशाल संख्या थी। प्रतिदिन भोजनोपरान्त पर्याप्त खाद्य सामग्री बच जाती थी और उससे अनेक अनाथों एवं भिक्षुओं का पोषण होता था। ऐसे घर के स्वामी को गाथापति कहा जाता है। - आनन्द की धन-सम्पत्ति का वर्णन ___ मूलम् तस्स णं आणंदस्स गाहावइस्स चत्तारि हिरण्ण कोडीओ निहाणपउत्ताओ, चत्तारि हिरण्ण-कोडीओ वुढिपउत्ताओ, चत्तारि हिरण्णकोडीओ पवित्थर पउत्ताओ, चत्तारि वया, दस-गो-साहस्सिएणं वएणं होत्था // 4 // छाया तस्य खलु आनन्दस्य गाथापतेश्चतस्रो हिरण्यकोटयः निधानप्रयुक्ताः, चतस्रो हिरण्यकोटयो वृद्धि प्रयुक्ताः, चतस्रो हिरण्यकोटयः प्रविस्तर प्रयुक्ताः, चत्वारो व्रजाः, दशगोसाहस्रिकेण व्रजेन अभवन्। शब्दार्थ तस्स णं आणंदस्स गाहावइस्स—उस आनन्द गाथापति के, चत्तारि हिरण्ण कोडीओ—चार करोड़ सुवर्ण, निहाणपउत्ताओ कोष में थीं, चत्तारि हिरण्ण कोडीओ बुड्डिपउत्ताओ—चार करोड़ वृद्धि के लिए व्यापार में लगे हुए थे। चत्तारि हिरण्ण कोडीओ-चार करोड़ सुवर्ण, पवित्थर पउत्ताओ प्रविस्तर गृह तथा तत्सम्बन्धी सामान में लगे हुए थे। चत्तारि वया-दस गोसाहस्सिएणं वएणं होत्था—प्रत्येक में दस हज़ार गायों वाले चार व्रज थे। .. भावार्थ—आनन्द गाथापति के चार करोड़ सुवर्ण निधान अर्थात् कोष में सञ्चित थे। चार करोड़ व्यापार में लगे हुए थे और चार करोड़ घर तथा तत्सम्बन्धी सामान में लगे हुए थे। इस प्रकार उसके पास 12 करोड़ सुवर्ण (दीनार) थे। इसके अतिरिक्त उसके पास चार व्रज थे। प्रत्येक व्रज में दस हजार गायें थीं। श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 77 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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