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________________ के दस अध्ययन निरूपित किये हैं तो प्रथम अध्ययन का क्या भाव बताया है ? टीका—उन दिनों आर्य सुधर्मा स्वामी पूर्णभद्र नामक उद्यान में आये, उनके सुशिष्य आर्य जम्बू स्वामी ने उपासना करते हुए पूछा हे भगवन् ! श्रमण भगवान् ने ज्ञाताधर्मकथाङ्ग सूत्र का जो वर्णन किया है वह मैंने सुन लिया, अब मुझे बताइये कि भगवान् ने सातवें अङ्ग उपासकदशाङ्ग का क्या अर्थ बताया है ? इस प्रश्न के उत्तर में सुधर्मा स्वामी ने कहा—हे जम्बू ! भगवान् ने उपासकदशाङ्ग सूत्र में 10 अध्ययनों का वर्णन किया है। आनन्द, कामदेव, गाथापति चुलिनीपिता, सुरादेव, चुल्लशतक, गाथापति कुण्डकौलिक, सद्दालपुत्र, महाशतक, नन्दिनीपिता तथा शालिहीपिता / ____ सुधर्मा के साथ अज्ज (आर्य अथवा अर्य) विशेषण है उसका भाव निम्नलिखित है—“ 'अज्ज' इति अर्यते-प्राप्यते यथाभिलषित तत्त्वजिज्ञासुभिरित्यर्यः, आर्यो वा स्वामीत्यर्थः, समस्तेभ्यो हेयधर्मेभ्य आरात्-पृथक् यायते-प्राप्यते अर्थाद् गुणैरिति, अथवा विषयकाष्ठ कर्तकत्वेनारा सादृश्यादारा–रत्नत्रयम्, तद् याति—प्राप्नोति इति निरुक्तवृत्त्याऽऽकारलोपे कृते—आर्यः, सर्वथा सकलकल्मषराशिकलुषितवृत्तिरहित इत्यर्थः", तथा चोक्तम् अज्जइ भविहिं आरा जाइज्जइ हेय धम्मओ जो वा / रयणत्तयरूवं वा, आरं जाइत्ति अज्ज इय वुतो // " 'अज्ज' शब्द की संस्कृत छाया अर्य और आर्य दोनों प्रकार की होती है। तत्त्व के जिज्ञासुओं द्वारा जो प्राप्त किया जाता है उसे अर्य कहते हैं और आर्य का अर्थ स्वामी है। अथवा जो त्यागने योग्य समस्त धर्मों से भिन्न गुणों के कारण प्राप्तव्य हो उसे आर्य कहते हैं। अथवा रत्नत्रय 1. सम्यग् दर्शन 2. सम्यग् ज्ञान और 3. सम्यग् चरित्र-आरा के समान हैं, क्योंकि वे पाँच इन्द्रियों के विषय रूपी काष्ठ को काटते हैं, उस रत्नत्रय की जिन्हें प्राप्ति हो गई है, उन्हें आर्य कहते हैं। तात्पर्य यह है कि जिन की वृत्ति पूर्ण रूप से निर्दोष है, वे आर्य हैं। ‘सत्तमस्स अंगस्स' जैन परम्परा में श्रुतज्ञान को पुरुष का रूप दिया गया है और आचाराङ्गादि आगमों को अङ्ग बताया है। इस क्रम में उपासकदशाङ्ग नामक आगम का सातवां स्थान है, अतः इसे सप्तम अंग कहा गया है। श्रुत पुरुष के 12 अङ्ग हैं, वह रूपक इस प्रकार है “यथा पुरुषस्य द्वौ चरणौ, द्वे जंघे, द्वावूरू, द्वौ गात्राझै, द्वौ बाहू, ग्रीवा शिरश्चेत्येतैर्वादशभिरंगैरभिव्यक्ति दीतिरुपलब्धिश्च भवति, तथात्र श्रुतरूपस्य परमपुरुषस्य सन्त्याचारादीनि द्वादशांगानि।" * अर्यते भविभिः आरात् यायते, हेयधर्मतो यो वा। रत्नत्रयरूपं वाऽऽरं यातीति आर्य इत्युक्तः // श्री उपासक दशांग सत्रम / 74 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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