________________ तत्र 1. दक्षिणचरणस्थानीयमाचाराङ्गम्, 2. वामचरणस्थानीयं सूत्रकृताङ्गम्, 3. दक्षिणजङ्घास्थानीयं स्थानाङ्गम्, 4. वामजङ्घा स्थानीयं समवायाङ्गम्, 5. दक्षिणोरूस्थानीयं भगवतीसूत्रम्, 6. वामोरूस्थानीयं ज्ञाताधर्मकथाङ्गम्, 7. दक्षिणपार्श्वस्थानीयं उपासकदशाङ्गम्, 8. वामपार्श्वस्थानीयमन्तकृद्दशाङ्गम्, 6. दक्षिणबाहुस्थानीयमनुत्तरौपपातिकम्, 10. वामबाहुस्थानीयं विपाकसूत्रम्, 11. प्रश्नव्याकरणम् ग्रीवास्थानीयम्, 12. मस्तक स्थानीयं दृष्टिवाद नामाङ्गम्।" जैसे पुरुष के दो पैर, दो पिण्डलियां, दो जघन, दो पसवाड़े (गात्रार्ध), दो भुजायें, एक ग्रीवा (गर्दन) और एक सिर होता है, इन बारह अंगों द्वारा उसकी अभिव्यक्ति प्रकटीकरण (दीप्ति प्रकाश) और उपलब्धि (प्राप्ति) होती है, इसी प्रकार श्रुत रूपी महापुरुष के आचारादि 12 अंग हैं—पहला आचाराङ्ग दायें पैर के समान, दूसरा सूत्रकृताङ्ग बायें पैर के समान, तीसरा स्थानाङ्ग दक्षिण जंघा के समान, चौथा समवायाङ्ग वाम जङ्घा के समान, पाँचवां भगवती दक्षिण जघन के समान, छठा ज्ञाताधर्मकथाङ्ग वाम जघन के समान, सातवां उपासकदशाङ्ग दक्षिण पार्श्व के समान, आठवाँ अन्तकृद्दशाङ्ग वाम पार्श्व के समान, नौवाँ औपपातिक दक्षिण भुजा के समान, दसवाँ प्रश्नव्याकरण वाम भुजा के समान, ग्यारहवाँ विपाकसूत्र ग्रीवा के समान और बारहवाँ दृष्टिवाद सिर के समान है। ‘एवं खलु जम्बू' इस पद से यह प्रकट होता है कि वर्तमान अङ्गसाहित्य सुधर्मा स्वामी की वाचना है। जम्बू स्वामी ने सुधर्मा स्वामी से जो जो प्रश्न किये, सुधर्मा स्वामी ने उनका स्पष्टीकरण किया है। भगवान् महावीर स्वामी के 11 गणधर थे और 6 वाचनाएँ मानी जाती हैं। प्रस्तुत वाचना सुधर्मा स्वामी की है। वाणिज्य ग्राम और आनन्दमूलम् एवं खलु जम्बू ! तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियगामे नामं नयरे होत्था। वण्णओ। तस्स णं वाणियगामस्स नयरस्स बहिया उत्तर पुरथिमे दिसी-भाए दूइपलासए नाम चेइए होत्था। तत्थ णं वाणियगामे नयरे जियसत्तू नाम राया होत्था। वण्णओ। तत्थ णं वाणियगामे नयरे आणंदे नामं गाहावई परिवसइ अड्ढे जाव अपरिभूए // 3 // ' छाया एवं खलु जम्बू ! तस्मिन् काले तस्मिन् समये वाणिज्यग्रामो नाम नगरमासीत्। वर्णकम् / तस्माद् वाणिज्यग्रामाद् नगराद् बहिरुत्तर पौरस्त्ये दिग्विभागे दूतीपलाशो नाम चैत्यम् आसीत्। तत्र खलु वाणिज्यग्रामे नगरे जितशत्रु राजा आसीत्, वर्णकम् / तत्र खलु वाणिज्यग्रामे नगरे आनन्दो नाम गाथापतिः परिवसति / आढ्यो यावत् अपरिभूतः। श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 75 / आनन्द उपासक, प्रथम अध्ययन