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________________ पौषधोपवास व्रत___'पौषध' शब्द संस्कृत के उपवसथ शब्द से बना है। इसका अर्थ है धर्माचार्य के समीप या धर्म स्थान में रहना। आजकल इसी को उपाश्रय या पौषधशाला कहा जाता है। उपवसथ अर्थात् धर्म स्थान में निवास करते हुए उपवास करना पौषधोपवास व्रत है। यह दिन-रात अर्थात् आठ प्रहरों का होता है और अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्व तिथियों पर किया जाता है। इस व्रत में नीचे लिखी वस्तुओं और बातों का त्याग किया जाता है— 1. भोजन, पानी आदि चारों प्रकार के आहारों का त्याग / 2. अंब्रह्मचर्य का त्याग। 3. आभूषणों का त्याग। 4. माला, तेल आदि सुगंधित द्रव्यों का त्याग / 5. समस्त सावध अर्थात् दोषपूर्ण प्रवृत्तियों का त्याग / इसके पांच अतिचार निवास-स्थान की देख-रेख के साथ सम्बन्ध रखते हैं। अतिथि संविभाग व्रत संविभाग का अर्थ है अपनी सम्पत्ति या अपनी भोग्य वस्तुओं में विभाजन करना अर्थात् दूसरे को देना। अतिथि के लिए किया जाने वाला विभाजन अतिथि संविभाग है। वैदिक परम्परा में भी अतिथि सेवा गहस्थ के प्रधान कर्त्तव्यों में गिनी गई है. किन्त जैन परम्परा में अतिथि शब्द का अर्थ कुछ भिन्न है। यहां निर्दोष जीवन व्यतीत करने वाले विशिष्ट व्यक्तियों को ही अतिथि माना गया है। उन्हें भोजन, पानी, वस्त्र आदि देना अतिथि संविभाग व्रत है। इसके नीचे लिखे पांच अतिचार हैं 1 . सचित्त-निक्षेपण—साधु के ग्रहण करने योग्य निर्दोष आहार में कोई सचित्त वस्तु मिला देना जिससे वह ग्रहण न कर सके। 2. सचित्तपिधान देने योग्य वस्तु को सचित्त वस्तु से ढक देना। 3. कालातिक्रम—भोजन का समय व्यतीत होने पर निमंत्रित करना। 4. परव्यपदेश न देने की भावना से अपनी वस्त को परायी बताना। 5. मात्सर्य—मन में ईर्ष्या या दुर्भावना रख कर दान देना। जैन धर्म में अनुकम्पादान और सुपात्र दान का विशेष महत्व है। अनुकम्पा सम्यक्त्व का अंग है। इसका अर्थ प्रत्येक दुखी या अभावग्रस्त को देखकर उसके प्रति करुणा या सहानुभूति प्रगट करना और उसके दुख को दूर करने के लिए यथाशक्ति यथोचित सहायता देना अनुकम्पा में सम्मिलित है। इससे आत्मा में उदारता, मैत्री आदि सद्गुणों की वृद्धि होती है। साधु-संघ के आहार पानी तथा शारीरिक आवश्यकताओं का ध्यान रखना श्रावक का धर्म है। अतिथि-संविभाग व्रत उसी को प्रकट करता है। | श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 63 / प्रस्तावना
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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