________________ व्यवहार में समता का अर्थ है अहिंसा, जो कि जैन आचार शास्त्र का प्राण है। विचार में समता का अर्थ है स्याद्वाद जो कि जैन दर्शन की आधार शिला है। __ प्रतिक्रमण का अर्थ है वापिस लौटना। साधक अपने पिछले कृत्यों की ओर लौटता है, उनके भले-बरे पर विचार करता है. भलों के लिए पश्चात्ताप करता है और भविष्य में उनसे बचे रहने का निश्चय करता है। श्रावक और साधु दोनों के लिए प्रतिक्रमण का विधान है। इसका दूसरा नाम आवश्यक है अर्थात् यह एक आवश्यक दैनिक कर्तव्य है। ___ श्रावक के व्रतों में सामायिक का नवां स्थान है, किन्तु आत्म शुद्धि के लिए विधान किए गए चार व्रतों में इसका पहला स्थान है। इसके पांच अतिचार निम्नलिखित हैं 1. मनोदुष्प्रणिधान—मन में बुरे विचार लाना / 2. वचन दुष्प्रणिधान—वचन का दुरुपयोग, कठोर या असत्य भाषण / 3. काय दुष्प्रणिधान–शरीर की कुप्रवृत्ति / 4. स्मृत्यकरण सामायिक को भूल जाना अर्थात् समय आने पर न करना। 5. अनवस्थितता—सामायिक को अस्थिर होकर या शीघ्रता में करना / देशावकाशिक व्रत इस व्रत में श्रावक यथाशक्ति दिन-रात या अल्प समय के लिए साधु के समान चर्या का पालन करता है। सामायिक प्रायः दो घड़ी के लिए की जाती है और उसमें सारा समय धार्मिक अनुष्ठान में लगाया जाता है। उसमें खाना, पीना, नींद लेना आदि वर्जित हैं। इस व्रत में भोजन आदि वर्जित नहीं हैं, किन्तु उसमें अहिंसा का पालन आवश्यक है। ___ इस व्रत को देशावकाश कहा जाता है। अर्थात् इसमें साधक निश्चित काल के लिए देश या क्षेत्र की मर्यादा करता है, उसके बाहर किसी प्रकार की प्रवृत्ति नहीं करता। ___ श्रावक के लिए चौदह नियमों का विधान है, अर्थात् उसे प्रतिदिन अपने भोजन, पान तथा अन्य प्रवत्तियों के विषय में मर्यादा निश्चित करनी चाहिए, इससे जीवन में अनशासन तथा दृढता आती है। इस व्रत के निम्नलिखित पांच अतिचार हैं 1. आनयनप्रयोग—मर्यादित क्षेत्र से बाहर की वस्तु मंगाने के लिए किसी को भेजना / 2. प्रेष्यप्रयोग–नौकर, चाकर आदि को भेजना। 3. शब्दानुपात—शाब्दिक संकेत द्वारा बाहर की वस्तु मंगाना / 4. रूपानुपात—हाथ आदि का इशारा करना / 5. पुद्गलप्रक्षेप–कंकर, पत्थर आदि फेंककर किसी को संबोधित करना / oc श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 62 / प्रस्तावना