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________________ हिंसा के प्रति निमित्त बनना पड़े। हिंसात्मक कार्यों के लिए आर्थिक या अन्य प्रकार की सभी सहायता इसमें आ जाती है। 4. पापकर्मोपदेश—किसी मनुष्य या पशु को मारने, पीटने या तंग करने के लिए दूसरों को उभारना। बहुधा देखा गया है कि बालक बिना किसी द्वेष बुद्धि के किसी भिखमंगे या घायल-पशु को तंग करने लगते हैं, पास में खड़े दूसरे मनुष्य तमाशा देखने के लिए उन्हें उकसाते हैं, यह सब पापकर्मोपदेश है। इसी प्रकार चोरी, डकैती, वेश्यावृत्ति आदि के लिए दूसरों को प्रेरित करना और ऐसी सलाह देना इसी के अन्तर्गत है। इस व्रत के पांच अतिचार निम्नलिखित हैं१. कंदर्प कामोत्तेजक चेष्टाएं या बातें करना / 2. कौत्कुच्य–भांडों के समान हाथ, पैर मटकाना, नाक, मुंह, आंख आदि से विकृत चेष्टाएं करना। 3. मौखरिता—मुखर अर्थात् वाचाल बनना / बढ़-बढ़कर बातें करना और अपनी शेखी मारना / 4. संयुक्ताधिकरण—हथियारों एवं हिंसक साधनों को आवश्यकता के बिना ही जोड़कर रखना। 5. उपभोगपरिभोगातिरेक—भोग्य-सामग्री को आवश्यकता से अधिक बढ़ाना। वैभव प्रदर्शन के लिए मकान, कपड़े, फर्नीचर आदि का आवश्यकता से अधिक संग्रह करना इस अतिचार के अन्तर्गत है। इससे दूसरों में ईर्ष्या-वृत्ति उत्पन्न होती है और अपना जीवन उन्हीं की व्यवस्था में उलझ जाता है। : सामायिक व्रत छठे, सातवें और आठवें व्रत में व्यक्ति का बाह्य चेष्टाओं पर नियन्त्रण बताया गया। नवें से लेकर बारहवें तक चार व्रत आन्तरिक अनुशासन या शुद्धि के लिए हैं। इनका अनुष्ठान साधना के रूप में अल्प समय के लिए किया जाता है। - जिस प्रकार वैदिक परम्परा में संध्या वंदन तथा मुसलमानों में नमाज दैनिक कृत्य के रूप में विहित हैं उसी प्रकार जैन परम्परा में सामायिक और प्रतिक्रमण हैं। सामायिक का अर्थ है जीवन में समता को उतारने का अभ्यास / साधु का सारा जीवन सामायिक रूप होता है अर्थात् उसका प्रत्येक कार्य समता का अनुष्ठान है। श्रावक प्रतिदिन कुछ समय के लिए उसका अनुष्ठान करता है। समता का अर्थ है 'स्व' और 'पर' में समानता। जैन धर्म का कथन है, जिस प्रकार हम सुख चाहते हैं और दुख से घबराते हैं उसी प्रकार प्रत्येक प्राणी चाहता है। हमें दूसरे के साथ व्यवहार करते समय उसके स्थान पर अपने को रखकर सोचना चाहिए, उसके कष्टों को अपना कष्ट, उसके सुख को अपना सुख मानना चाहिए। समता के इस सिद्धान्त पर विश्वास रखने वाला व्यक्ति किसी की हिंसा नहीं करेगा। किसी को कठोर शब्द नहीं कहेगा और न किसी का बुरा सोचेगा। पहले बताया जा चुका है कि श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 61 / प्रस्तावना
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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