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________________ उपासकदशांगसूत्र की अभयदेवीय टीका में उपरोक्त अर्थ के साथ विपरीत अर्थ भी दिया गया है अर्थात् एक बार काम में आने वाली वस्तु को उपभोग बताया गया है। __इस व्रत में दो दृष्टियां रखी गई हैं, भोग और कर्म / भोग की दृष्टि को लक्ष्य में रखकर 26 बातें गिनाई गई हैं जिनकी मर्यादा स्थिर करना श्रावक के लिए आवश्यक है, उनमें भोजन, स्नान, विलेपन, दन्तधावन, वस्त्र आदि समस्त वस्तुएं आ गई हैं। इनसे ज्ञात होता है कि श्रावक के जीवन में किस प्रकार का अनुशासन था, किस प्रकार वह अपने कार्य में जागरूक है। उनमें स्नान तथा दन्त-धावन आदि का स्पष्ट उल्लेख है। अतः जैनियों के गन्दे रहने का जो आरोप लगाया जाता है वह मिथ्या है। अपने आलस्य या अविवेक के कारण कोई भी गन्दा रह सकता है, वह जैन हो या अजैन, उसके लिए धर्म को दोष देना उचित नहीं है। दूसरी दृष्टि कर्म की अपेक्षा से है। श्रावक को ऐसे कर्म नहीं करने चाहिएं जिनमें अधिक हिंसा हो, जैसे—कोयले बनाना, जंगल साफ करना, बैल आदि को नथना या खस्सी करना आदि / उसको ऐसे धन्धे भी नहीं करने चाहिएं जिनसे अपराध या दुराचार की वृद्धि हो, जैसे—दुराचारिणी स्त्रियों की नियुक्ति करके वेश्यावृत्ति कराना, चोर, डाकुओं को सहायता देना आदि। इसके लिए 15 कर्मादान गिनाए गए हैं। उपरोक्त 26 बातों तथा 15 कर्मादानों के लिए प्रथम आनन्द नाम का अध्ययन देखना चाहिए। . अनर्थदण्ड-विरमण व्रत पांचवें व्रत में सम्पत्ति की मर्यादा की गई और छठे में सम्पत्ति या स्वार्थमूलक प्रवृत्तियों की, सातवें में प्रतिदिन व्यवहार में आने वाली भोग्यसामग्री पर नियंत्रण किया गया, आठवें में हलचल या शारीरिक चेष्टाओं का अनुशासन है। श्रावक के लिए व्यर्थ की बातें करना, शेखी मारना, निष्प्रयोजन हाथ-पैर हिलाना वर्जित है। इसी प्रकार उन्हें अपनी घरेलू वस्तुएं व्यवस्थित रखनी चाहिएं। ऐसा कोई कार्य नहीं करना चाहिए जिससे लाभ कुछ भी न हो और दूसरे को कष्ट पहुंचे। अनर्थ दण्ड अर्थात् निष्प्रयोजन हिंसा के चार रूप बताए गए हैं 1. अपध्यानाचरित–चिंता या क्रूर विचारों के कारण होने वाली हिंसा। धन सम्पत्ति का नाश, पुत्र-स्त्री आदि प्रियजन का वियोग आदि कारणों से मनुष्य को चिन्ताएं होती रहती हैं किन्तु उनसे लाभ कुछ भी नहीं होता, किन्तु अपनी ही आत्मा निर्बल होती है। इसी प्रकार क्रूर या द्वेषपूर्ण विचार रखने पर भी कोई लाभ नहीं होता, ऐसे विचारों को अपध्यानाचरित अनर्थदण्ड कहा गया है। 2. प्रमादाचरित—आलस्य या असावधानी के कारण होने वाली हिंसा। घी, तेल तथा पानी वाली खाद्य वस्तुओं को बिना ढके रखना तथा अन्य प्रकार की असावधानी इस श्रेणी में आ जाती है। यदि कोई व्यक्ति सड़क पर चलते समय, यात्रा करते समय या अन्य व्यवहार में दूसरे का ध्यान नहीं रखता और ऐसी चेष्टाएं करता है जिससे दूसरे को कष्ट पहुंचे ये सब प्रमादाचरित हैं। 3. हिंस्रप्रदान दूसरे व्यक्ति को शिकार खेलने आदि के लिए शस्त्रास्त्र देना जिससे व्यर्थ ही श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 60 / प्रस्तावना
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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