________________ ग्यारह प्रतिमाएं लम्बे समय तक व्रतों का पालन करता हुआ श्रावक पूर्ण त्याग की ओर अग्रसर होता है। उत्साह बढ़ने पर एक दिन कुटुम्ब का उत्तरदायित्व सन्तान को सौंप देता है और पौषधशाला में जाकर सारा समय धर्मानुष्ठान में बिताने लगता है। उस समय वह उत्तरोत्तर साधुता की ओर बढ़ता है। कुछ दिनों तक अपने घर से भोजन मंगाता है और फिर उसका भी त्याग करके भिक्षा पर निर्वाह करने लगता है। इन व्रतों को ग्यारह प्रतिमाओं के रूप में प्रकट किया गया है। प्रतिमा शब्द का अर्थ है सादृश्य / जब श्रावक साधु के सदृश्य होने के लिए प्रयत्नशील होता है तो उसे प्रतिमा कहा जाता है। इसकी विस्तृत चर्चा के लिए आनन्द नामक प्रथम अध्ययन देखना चाहिए। संलेखना व्रत श्रमण परम्परा जीवन को अपने आप में लक्ष्य नहीं मानती। उसका कथन है कि साधना का लक्ष्य आत्मा का विकास है और जीवन उसका साधन मात्र है। जिस दिन यह प्रतीत होने लगे कि शरीर शिथिल हो गया है, वह सहायक होने के स्थान पर विघ्न-बाधाएं उपस्थित करने लगा है तो उस समय यह उचित है कि उसका परित्याग कर दे। इसी परित्याग को अंतिम संलेखना व्रत कहा है। इसमें श्रावक या साधु आहार का परित्याग करके धर्म-चिन्तन में लीन हो जाता है, न जीवन की आकांक्षा करता है न मृत्यु की, न यश की, न ऐहिक या पारलौकिक सुख की। धन, सम्पत्ति, परिवार, शरीर आदि सबसे अनासक्त हो जाता है। इस प्रकार आयुष्य पूरा होने पर शान्ति तथा स्थिरता के साथ देह का परित्याग करता है। ___ इस व्रत को आत्महत्या कहना भूल है। व्यक्ति आत्महत्या तब करता है जब किसी कामना को पूरी नहीं कर पाता और वह इतनी बलवती हो जाती है कि उसकी पूर्ति के बिना जीवन बोझ जान पड़ता है और उस बोझ को उतारे बिना शान्ति असम्भव प्रतीत होती है। आत्म-हत्या का दूसरा कारण उत्कट वेदना या मार्मिक आघात होता है। दोनों परिस्थितियां व्यक्ति की निर्बलता को प्रकट करती हैं। इसके विपरीत संलेखना त्याग की उत्कटता तथा हृदय की परम दृढ़ता को प्रकट करती है। जहां व्यक्ति बिना किसी कामना के शान्तिपूर्वक अपने आप जीवन का उत्सर्ग करता है। आत्महत्या निराशा तथा विवशता की पराकाष्ठा है, संलेखना वीरता का वह उदात्त रूप है जहां एक सिपाही हंसते-हंसते प्राणों का उत्सर्ग कर देता है। सिपाही में आवेश रहता है किन्तु संलेखना में वह भी नहीं होता। इस व्रत के पांच अतिचार निम्नलिखित हैं१. धन, परिवार आदि इस लोक सम्बन्धी किसी वस्तु की आकांक्षा करना। . 2. स्वर्ग के सुख आदि परलोक से संबंध रखने वाली किसी बात की आकांक्षा करना / 3. जीवन की आकांक्षा करना। 4. कष्टों से घबराकर शीघ्र मरने की आकांक्षा करना / 5. अतृप्त कामनाओं की पूर्ति के रूप में काम भोगों की आकांक्षा करना। श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 64 / प्रस्तावना