SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 59
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ शत्रु के प्रति मित्रता या प्रेम भावना है। छोटा बालक बहुत सी वस्तुएं तोड़-फोड़ डालता है, माता को उससे परेशानी होती है, किन्तु वह मुस्कराकर टाल देती है। बालक के भोलेपन पर उसका प्रेम और भी बढ़ जाता है। मित्रता या प्रेम की यह पहली शर्त है कि दूसरे द्वारा हानि पहुंचाने पर क्रोध नहीं आता प्रत्युत उपस्थित किए गए कष्टों, झंझटों तथा हानियों से संघर्ष करने में अधिकाधिक आनन्द आता है। अहिंसक शत्रु से डरकर क्षमा नहीं करता, किन्तु उसकी भूल को दुर्बलता समझकर क्षमा करता है। अहिंसा की इस भूमि पर बिरले ही पहुंचते हैं। जो व्यक्ति पूर्णतया अपरिग्रही हैं, अर्थात् जिन्हें धन-सम्पत्ति. मान-अपमान तथा अपने शरीर में भी ममत्व नहीं है, जो समस्त स्वार्थों को त्याग चके हैं वे ही ऐसा कर सकते हैं। दूसरों के लिए अहिंसा ही दूसरी कोटि है कि निरपराध को दण्ड न दिया जाए किन्तु अपराधी का दमन करने के लिए हिंसा का प्रयोग किया जा सकता है। उसमें भी अपराधी को सुधारने या उसके कल्याण की भावना रहनी चाहिए, उसे नष्ट करने की नहीं। द्वेष-बुद्धि जितनी कम होगी व्यक्ति उतना ही अहिंसा की ओर अग्रसर कहा जाएगा। भारतीय इतिहास में अनेक जैन राजा, मन्त्री, सेनापति तथा बड़े-बड़े व्यापारी हो चुके हैं। समस्त प्रवृत्तियां करते हुए भी वे जैन बने रहे। उनके उदाहरण इस बात को सिद्ध करते हैं कि प्रवृत्तिमय जीवन में भी अहिंसा का पालन किया जा सकता है। श्रावक अपने प्रथम अणुव्रत में यह निश्चय करता है कि मैं निरपराध त्रस जीवों की हिंसा नहीं करूंगा अर्थात् उन्हें जान-बूझकर नहीं मारूंगा। इस व्रत के पांच अतिचार हैं जिनकी तत्कालीन श्रावक के जीवन में सम्भावना बनी रहती थी। वह इस प्रकार हैं 1. बन्ध—पशु तथा नौकर-चाकर आदि आश्रित जनों को कष्टदायी बन्धन में रखना। यह बन्धन शारीरिक, आर्थिक, सामाजिक आदि अनेक प्रकार का हो सकता है। 2. वध—उन्हें बुरी तरह पीटना / / 3. अविच्छेद–उनके हाथ, पांव आदि अंगों को काटना / 4. अतिभार—उन पर अधिक बोझ लादना / नौकरों से अधिक काम लेना भी अतिभार है। 5. भक्तपानविच्छेद–उन्हें समय पर भोजन, पानी न देना। नौकर को समय पर वेतन न देना जिससे उसे तथा उसके घरवालों को कष्ट पहुंचे। ___इन पांच अतिचारों से ज्ञात होता है कि श्रावक संस्था का विकास मुख्यता वैश्य वर्ग में हुआ था। कृषि, गोपालन तथा वाणिज्य उनका मुख्य धन्धा था। आनन्द के अध्ययन में इन तीनों का विस्तृत वर्णन है। भगवान् महावीर के गृहस्थ अनुयायियों में राजा, सेनापति तथा अन्य आयुध-जीवी भी सम्मिलित थे। किन्त महावीर का मख्य लक्ष्य मध्यवर्ग था। उनके मतानुसार स्वस्थ समाज की रचना ऐसा वर्ग ही कर सकता है जो न स्वयं दूसरे का शोषण करता है और न दूसरे के शोषण का श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 54 / प्रस्तावना
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy