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________________ लक्ष्य बनता है। तत्कालीन समाज में ब्राह्मण और क्षत्रिय शोषक थे। एक बुद्धि द्वारा शोषण करता था दूसरा शस्त्र द्वारा। दोनों परस्पर मिलकर समाज पर आधिपत्य जमाए हुए थे। दूसरी ओर शूद्रों का शोषितवर्ग था, उन्हें सम्पत्ति रखने का अधिकार नहीं था। दूसरों की सेवा करना और दूसरों द्वारा दिए गए बचे-खुचे भोजन तथा फटे-पुराने वस्त्रों पर निर्वाह करना ही एकमात्र धर्म था। ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा शूद्र महावीर के श्रमण संघ में सम्मिलित होकर एक सरीखे हो गए, उनका परस्पर भेद समाप्त हो गया और सर्व-साधारण के वन्दनीय बन गए। किन्तु जहां तक गृहस्थ जीवन का प्रश्न है, महावीर ने वैश्य-समाज को सामने रखा और वह परम्परा अब तक चली आ रही है। सत्य व्रत श्रावक का दूसरा व्रत मृषावाद-विरमण अर्थात् असत्य भाषण का परित्याग है। उमास्वाति ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा है कि 'असदभिधानमनृतम्'। असद् के तीन अर्थ हैं (1) असत् अर्थात् जो बात नहीं है उसका कहना। (2) बात जैसी है उसे वैसी न कहकर दूसरे रूप में कहना, एक ही तथ्य को ऐसे रूप में भी उपस्थित किया जा सकता है जिससे सामने वाला नाराज हो जाए। सत्यवादी का कर्तव्य है कि दूसरे के सामने वस्तु को वास्तविक रूप में रखे, उसे बनाने या बिगाड़ने का प्रयत्न न करे। (3) इसका अर्थ है असत्-बुराई या दुर्भावना को लेकर किसी से कहना। यह दुर्भावना दो प्रकार की है (1) स्वार्थ सिद्धि मूलक—अर्थात् अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए दूसरे को गलत बात बताना / (2) द्वेषमूलक-दूसरे को हानि पहुंचाने की भावना। - इस व्रत का मुख्य सम्बन्ध भाषण के साथ है। किन्तु दुर्भावना से प्रेरित मानसिक चिन्तन तथा कायिक व्यापार भी इसमें आ जाते हैं। ____ सत्य की श्रेष्ठता के विषय में दो वाक्य मिलते हैं। पहला उपनिषदों में है—'सत्यमेव जयते नानृतं' अर्थात् सत्य की जीत होती है, झूठ की नहीं। दूसरा वाक्य जैन-शास्त्रों में मिलता है 'सच्चं लोगम्मि सारभूयं' अर्थात् सत्य ही लोक में सारभूत है। इन दोनों में भेद बताते हुए काका कालेलकर ने लिखा है कि प्रथम वाक्य में हिंसा मिली हुई है, जीत में हारने वाले की हिंसा छिपी हुई है, अहिंसक मार्ग तो वह हैं जहां शत्रु और मित्र दोनों की जीत होती है। हार किसी की नहीं होती। दूसरा वाक्य * यह बताता है कि सत्य ही विश्व का सार है, उसी पर दुनिया टिकी हुई है। जिस प्रकार गन्ने का मूल्य उसके सार अर्थात् रस पर आश्रित है, इसी प्रकार जीवन का मूल्य सत्य पर आधारित है, यहां जीत और हार का प्रश्न नहीं है। - उपनिषदों में सत्य को ईश्वर का रूप बताया गया है और उसे लक्ष्य में रखकर अभय अर्थात् अहिंसा का उपदेश दिया गया है। जैन धर्म आचार प्रधान है अतः अहिंसा को सामने रखकर उस पर सत्य की प्रतिष्ठा करता है। श्रावक अपने सत्य व्रत में स्थूल-मृषावाद का त्याग करता है। उन दिनों स्थूल मृषावाद के जो रूप थे यहां उनकी गणना की गई है। वे इस प्रकार हैं श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 55 / प्रस्तावना
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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