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________________ डावांडोल मन वाला साधक आगे नहीं बढ़ सकता। उसे सदा सावधान रहना चाहिए कि मन में किसी प्रकार की अस्थिरता या चंचलता तो नहीं आ रही है। जैन शास्त्रों में इसके निम्नलिखित पांच दोष बताए गए हैं 1. शंका शास्त्रों द्वारा प्रतिपादित तात्त्विक बातों में सन्देह होना। जिस व्यक्ति की आत्मा उसके ज्ञान, दर्शन आदि स्वाभाविक गुणों तथा उनको आच्छन्न करने वाले कर्मों को उनसे छुटकारा प्राप्त करने के लिए प्रतिपादित मार्ग में विश्वास नहीं है वह आगे नहीं बढ़ सकता। अतः सिद्धान्तों में अविचल विश्वास होना आवश्यक है। उनमें शंका या सन्देह होना सम्यक्त्व का पहला दोष है / 2. कांक्षा—अपने मार्ग को छोड़कर दूसरे मार्ग की ओर झुकाव / प्रायः देखा गया है कि व्यक्ति जिन बातों से अधिक परिचित हो जाता है उनके प्रति आकर्षण कम हो जाता है और नई बातें अच्छी लगती हैं। अंगीकृत मार्ग में भी ऐसी कठिनाइयां आने लगती हैं, लेकिन यह हृदय की दुर्बलता है। साधना का मार्ग कठोर है और कठोर रहेगा। उससे बचने के लिए इधर-उधर भागना एक प्रकार का विघ्न है। आजकल धार्मिक उदारता के नाम पर इस दोष को प्रश्रय दिया जा रहा है और एक निष्ठा को साम्प्रदायिकता या संकुचित मनोवृत्ति कहकर बदनाम किया जा रहा है। इन दोनों का अन्तर स्पष्ट समझ लेना चाहिए, यदि धार्मिक कट्टरता दूसरों से द्वेष या घृणा के लिए प्रेरित करती है तो यह वास्तव में बुरा है। धर्म किसी से द्वेष करने के लिए नहीं कहता, किन्तु इसका अर्थ यह नहीं है कि सभी मार्गों को एक सरीखा कहकर किसी पर चलने का प्रयत्न न किया जाए। एक ही लक्ष्य पर अनेक मार्ग पहुंच सकते हैं किन्तु चलना एक ही पर होगा। जैन शास्त्रों में सिद्धों के जो पन्द्रह भे बताए गए हैं उनमें स्वलिंग सिद्ध के समान परलिंग सिद्ध को भी स्वीकार किया गया है। इसका अर्थ है कि साधक साधु के वेश में हो या अन्य किसी वेश में, जैन परम्परा का अनुयायी हो या अन्य का, चारित्र-शुद्धि द्वारा मोक्ष प्राप्त कर सकता है। फिर भी किसी एक मार्ग को पकड़कर उस पर दृढ़तापूर्वक चलना आवश्यक है। सर्व-धर्म समभाव का यह अर्थ नहीं है कि किसी पर न चला जाए। जो व्यक्ति आन्दोलन द्वारा लोकप्रिय बनना चाहता है वह कैसी ही बातें करे किन्तु किसी दूसरे मार्ग को बुरा न मानते हुएं भी चलना किसी एक पर ही होगा, साधक का कल्याण इसी में है। एक लक्ष्य और एक निष्ठा साधना के अनिवार्य तत्त्व हैं। प्रथम दोष लक्ष्य से सम्बन्ध रखता है और द्वितीय निष्ठा से। .3. विचिकित्सा–फल के प्रति सन्देहशील होना। धार्मिक साधना का अन्तिम फल मोक्ष या निर्वाण है। अवान्तर फल आत्म शुद्धि है जो निरन्तर दीर्घकालीन अभ्यास के पश्चात् प्राप्त होती है। तब तक साधक को धैर्य रखना चाहिए और अपने अनुष्ठानों में लगे रहना चाहिए। लक्ष्य सिद्धि के प्रति सन्देहशील होना साधना का तीसरा दोष है। 4. पर-पाषंड प्रशंसा इसका अर्थ है अन्य मतावलम्बी की प्रशंसा करना। यहां 'पर' शब्द के | श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 47 / प्रस्तावना
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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