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________________ दो अर्थ हो सकते हैं। पहला अर्थ है स्वयं जिस मत को स्वीकार किया है उससे भिन्न मत की प्रशंसा / उदाहरण के रूप में बताया गया है कि व्यक्ति पुरुषार्थ तथा पराक्रम द्वारा अपने भविष्य को बदल सकता है। उसे बनाना या बिगाड़ना उसके हाथ में है। इसके अतिरिक्त गोशालक नियतिवाद को मानता है उसका कथन है कि पुरुषार्थ व्यर्थ है जो कुछ होना है अवश्य होगा। उसमें परिवर्तन लाना सम्भव नहीं है। तीसरी परम्परा ईश्वरवादियों की है जिनका कथन है कि हमारा भविष्य किसी अतीन्द्रिय शक्ति के हाथ में है, हमें अपने उद्धार के लिए उसी से प्रार्थना करनी चाहिए। इन मान्यताओं के सत्यासत्य की चर्चा में न जाकर यहां इतना कहना ही पर्याप्त है कि साधक इनकी प्रशंसा करता है या इन के प्रति सहानुभूति रखता है तो उसकी निष्ठा में शिथिलता आ जाएगी, अतः इससे बचे रहने की आवश्यकता है। 'पर' शब्द का दूसरा अर्थ अन्य मतावलम्बी है। शिष्टाचार के नाते सभी को आदर देना साधक का कर्तव्य है। किन्तु प्रशंसा का अर्थ है उसकी विशेषताओं का अभिनन्दन / यह तभी हो सकता है जब साधक या तो उन्हें अच्छा मानता है या हृदय में बुरा मानता हुआ भी ऊपर से प्रशंसा करता है। पहली बात शिथिलता है जो कि साधना का विघ्न है, दूसरी बात कपटाचार की है जो चारित्र शुद्धि के विपरीत है। 5. पर-पाषंड संस्तव इसका अर्थ है भिन्न मत या उसके अनुयायी के साथ परिचय या मेल-मिलाप रखना। यह भी एक-निष्ठा का बाधक है। पतञ्जलि ने अपने योगदर्शन में चित्त-विक्षेप के रूप में साधना के नौ विघ्न बताए हैं—व्याधि, स्त्यान, संशय, प्रमाद, आलस्य, अविरति, भ्रान्तिदर्शन, अलब्धभूमिकत्व और अनवस्थितत्व। इनमें संशय उपरोक्त शंका के समान है और भ्रांतिदर्शन विचिकित्सा के समान / बौद्ध धर्म में इन्हीं के समान पांच नीवरण बताए गए हैं। श्रावक-धर्म जैन साधक की दूसरी श्रेणी श्रावक-धर्म है। इसे संयमासंयम, देशविरति, गृहस्थ-धर्म आदि नामों द्वारा प्रकट किया जाता है। यह पहले बताया जा चुका है कि श्रमण परम्परा में त्याग पर अधिक बल दिया गया है। वहां विकास का अर्थ आन्तरिक समृद्धि है और यदि बाह्य सुख सामग्री उसमें बाधक है तो उसे भी हेय बताया गया है। फिर भी जैन परम्परा ने आध्यात्मिक विकास की मध्यम श्रेणी के रूप में एक ऐसी भूमिका को स्वीकार किया है जहां त्याग और भोग का सुन्दर समन्वय है। बौद्ध संघ में केवल भिक्षु ही सम्मिलित हैं। जहां तक मुनि की चर्या का प्रश्न है जैन परम्परा ने उसे अत्यन्त कठोर तथा उच्चस्तर पर रखा है। बौद्ध भिक्षु अपनी चर्या में रहता हुआ भी अनेक प्रवृत्तियों में भाग ले सकता है किन्तु जैन मुनि ऐसा नहीं कर सकता। परिणामस्वरूप जहां तप और त्याग की आध्यात्मिक ज्योति को प्रज्वलित रखना साधु संस्था का कार्य है, संघ के भरण-पोषण एवं बाह्य सुविधाओं का ध्यान रखना श्रावक संस्था का कार्य है। श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 48 / प्रस्तावना
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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