________________ कारणों की अपेक्षा रखता है, इसलिए बाह्य है। सम्यक्त्व का आभ्यन्तर रूप आत्मा की शुद्धि पर निर्भर है। वास्तव में देखा जाए तो बाह्य रूप आभ्यन्तर रूप की स्वाभाविक अभिव्यक्ति है। जब आत्मा में विशेष प्रकार की शुद्धि आती है तो जीव में सत्य को जानने की स्वाभाविक रुचि प्रकट होती है। उस शुद्धि से पहले जीव सांसारिक सुखों में फंसा रहता है। _अब हमारे सामने यह प्रश्न आता है कि जीव में पहले-पहल उस प्रकार की शुद्धि कैसे आती है। इसके लिए संक्षेप में आत्मा का स्वरूप और उसके संसार में भटकने के कारणों को जानना आवश्यक है। जैन धर्म के अनुसार आत्मा अनादि तथा अनन्त है। न तो यह कभी उत्पन्न हुआ और न कभी नष्ट होगा। चार अनन्त इसके स्वभाव हैं—अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख और अनन्त वीर्य / अर्थात् आत्मा अनन्त वस्तुओं को जान सकता है। वह अनन्त सुख तथा अनन्त शक्ति का भंडार है। आत्मा के ये गुण कर्मबन्ध के कारण दबे हुए हैं। कर्मों के कारण वह अल्पज्ञ, अल्पद्रष्टा, अल्पसुखी तथा अल्पशक्ति बना हुआ है। कर्मों का बन्धन दूर होते ही उसके स्वाभाविक गुण प्रकट हो जाएंगे और वह अनन्तज्ञानी, अनन्तद्रष्टा, अनन्तसुखी तथा अनन्तशक्ति वाला बन जाएगा। आध्यात्मिक साधना का अर्थ है कर्मबन्धन से छुटकारा पाने का प्रयत्न / कर्मों का आवरण जैसे-जैसे पतला और अल्प होता जाता है आत्मा के गुण अपने आप प्रकट होते जाते हैं। कर्म दो प्रकार के हैं—द्रव्य कर्म और भावकर्म। पुद्गल द्रव्य के वे परमाणु जो आत्मा के साथ मिलकर उसकी विविध शक्तियों को कुण्ठित कर डालते हैं वे द्रव्यकर्म कहलाते हैं। क्रोध, मान, माया, लोभ आदि के वे संस्कार जो आत्मा को बहिर्मुखी बनाए रखते हैं, उसे अपने स्वरूप का भान नहीं होने देते वे भावकर्म हैं। इन कर्मों के कारण जीव अनादिकाल से संसार में भटकता रहा है और तब तक भटकता रहेगा जब तक उनसे छुटकारा नहीं पा लेता। सम्यक्त्व के पांच चिन्ह सम्यग्दृष्टि के जीवन में स्वाभाविक निर्मलता आ जाती है। उसका चित्त शान्त हो जाता है। दृष्टि दूसरे के गुणों पर जाती है, दोषों पर नहीं। दुखी को देखकर उसके मन में स्वाभाविक करुणा उत्पन्न होती है। बिना किसी स्वार्थ के दूसरे की सेवा करके उसके मन में प्रसन्नता होती है। शास्त्रों में सम्यग्दृष्टि के पांच चिन्ह बताए गए हैं— __.1. शम–सम्यग्दृष्टि व्यर्थ के झगड़े तथा कदाग्रहों से दूर रहता है, उसकी वृत्तियां शान्त होती हैं। क्रोध, मान, माया और लोभ रूप कषाय मन्द होते हैं। राग और द्वेष में उत्कटता नहीं होती। इसी का नाम शम है। 2. संवेग-सम्यग्दृष्टि का मन सांसारिक सुखों की ओर आकृष्ट नहीं होता। गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी उसका मन त्याग की ओर झुका रहता है। शास्त्रों में इसकी उपमा तप्त-लोह पदन्यास से . श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 45 / प्रस्तावना