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________________ कि 'जिन' ने जो कुछ कहा है वही मेरे लिए तत्त्व है। जैन शब्द भी इसी आधार पर बना है। जिनों के द्वारा बताए हुए रास्ते पर चलने वाला जैन है। 'जिन' का अर्थ है जिसने राग, द्वेष को जीत लिया है। शास्त्रों में 'जिन' की परिभाषा देते हुए दो बातें बताई जाती हैं। पहली--जिसने राग, द्वेष को जीत लिया है। दूसरी जिसने पूर्ण ज्ञान को प्राप्त कर लिया है। कोई व्यक्ति जब गलत बात कहता है तो उसके दो ही कारण हो सकते हैं। या तो कहने वाला उस बात को पूरी तरह जानता ही नहीं या जानते हुए भी किसी स्वार्थ से प्रेरित होकर अन्यथा कहता है। जिसमें ये दोनों दोष नहीं हैं, वे पूर्णज्ञानी भी हैं और स्वार्थों से ऊपर भी हैं। इसलिए उनके द्वारा कही हई बात मिथ्या नहीं हो सकती। यहां बुद्धि-वादियों की ओर से यह प्रश्न उठता है कि व्यक्ति प्रत्येक बात को अपनी बुद्धि से जांच कर क्यों न स्वीकार करे। किन्तु यह शर्त ठीक नहीं है। मनुष्य की बुद्धि इतनी क्षुद्र है कि सभी बातों का परीक्षण वह स्वयं नहीं कर सकती। विज्ञान के क्षेत्र में भी हमें प्राचीन अन्वेषणों को मानकर चलना होता है। यदि नया युग पुराने अनुभवों से लाभ न उठाए और प्रत्येक व्यक्ति अपने अन्वेषण नए सिरे से प्रारम्भ करे तो प्रगति असम्भव है। हम जहां थे, वहां ही रह जाएंगे। इसलिए पुराने अनुभवों पर विश्वास करते हुए आगे बढ़ना होता है। कुछ दिनों बाद व्यक्ति स्वयं उन अनुभवों को साक्षात्कार कर लेता है। उस समय दूसरे के अनुभव पर विश्वास के स्थान पर सारा अनुभव अपना ही बन जाता है। आध्यात्मिक क्षेत्र में इसी को कैवल्य अवस्था कहते हैं। उस दशा को प्राप्त करने से पहले दूसरे के अनुभवों पर विश्वास करना आवश्यक है। बुद्धि में एक दोष और भी है। वह प्रायः हमारे मन में जमे हुए अनुराग के संस्कारों का समर्थन करती है। यदि हम किसी को अच्छा मानते हैं तो बुद्धि उसी का समर्थन करती हुई दो गुण बता देगी। यदि किसी को बुरा मानते हैं तो बुद्धि उसके दोष निकाल लेगी। बुद्धि के आधार पर सत्य को तभी जाना जा सकता है जब चित्त शुद्ध हो। वह अनुराग और घृणा से ऊंचा उठा हुआ हो / चित्त-शुद्धि के लिए साधना आवश्यक है और श्रद्धा उसका पहला पाया है। हां, श्रद्धेय में जिन गुणों की आवश्यकता है उसे जिन शब्द द्वारा स्पष्ट बता दिया गया है। जो व्यक्ति राग, द्वेष से रहित तथा पूर्ण ज्ञान वाला है, वह चाहे कोई भी हो उसकी वाणी में विश्वास करने से कोई हानि नहीं है। इसी बात को ऐतिहासिक दृष्टि से लिया जाता है तो श्रुतज्ञान या जैन आगमों की चर्चा की जाती है। जो ज्ञान दूसरों के अनुभव सुनकर प्राप्त किया जाए उसे श्रुत-ज्ञान कहा जाता है। जैन परम्परा में जो ज्ञानवान् महापुरुष हुए हैं उनका अनुभव आगमों में मिलता है, इसीलिए आगमों में श्रद्धा रखने का प्रतिपादन किया जाता है। सम्यक्त्व का आभ्यन्तर रूप देव, गुरु और धर्म में विश्वास के रूप में सम्यक्त्व का जो स्वरूप बताया गया है, वह बाह्य श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 44 / प्रस्तावना
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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