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________________ में श्रद्धा / दूसरा आभ्यन्तररूप है, इसका अर्थ है आत्मा की वह निर्मलता जिससे सत्य को जानने की स्वाभाविक अभिरुचि जागृत हो जाए। नीचे इन दोनों रूपों का वर्णन किया जाएगा। सम्यक्त्व का बाह्य रूपजब कोई व्यक्ति जैन धर्म स्वीकार करता है, तो नीचे लिखी प्रतिज्ञा करता है अरिहंतो मह देवो, जाव जीवाए सुसाहुणो गुरुणो / जिणपण्णत्तं तत्तं, इअ सम्मत्तं मए गहियं / / अर्थात् समस्त जीवन के लिए अरिहन्त मेरे देव हैं। साधु गुरु हैं और जिनेन्द्र द्वारा प्रतिपादन किया हुआ तत्त्व ही धर्म है। इस प्रकार मैं सम्यक्त्व को ग्रहण करता हूं। देव सम्यक्त्व की व्यवस्था में सबसे पहले देव-तत्त्व आता है। भारतीय परम्परा में उसकी कल्पना के दो रूप हैं। पहला रूप वैदिक परम्परा में मिलता है। उसमें देव की कल्पना वर-दाता के रूप में की गई है। इन्द्र, वरुण, अग्नि आदि देवताओं की स्तुति करने से वे इच्छापूर्ति करते थे। उसके बाद जब अनेक देवताओं का स्थान एक देवता ने ले लिया तो वह भी भक्तों को सुख देने वाला बना रहा / जिन धर्मों का मुख्य ध्येय सांसारिक सुखों की प्राप्ति है, उन्होंने देवतत्त्व को प्रायः इसी रूप में माना : जैन धर्म अपने देवता से किसी वरदान की आशा नहीं रखता। वह उसे आदर्श के रूप में स्वीकार करता है। वास्तव में देखा जाए तो आत्मशुद्धि के मार्ग में वरदान का कोई स्थान नहीं है। इस मार्ग में आगे बढ़ने के लिए प्रत्येक व्यक्ति को स्वयं परिश्रम करना होता है। कदम-कदम बढ़ाकर आगे चलना होता है। कोई किसी को उठाकर आगे नहीं रख सकता। यहां कोई दूसरा यदि उपयोगी हो सकता है तो इतना ही कि मार्ग बताने के लिए आदर्श उपस्थित कर दे, जिससे साध क उस लक्ष्य को सामने रखकर चलता रहे। जैन धर्म का देवतत्त्व उसी आदर्श का प्रतीक है। वह बताता है कि हमें कहां पहुंचना है। वह हमारी यात्रा का चरम लक्ष्य है। अरिहन्त और ईश्वर पातञ्जलयोगदर्शन में भी ईश्वर की कल्पना आदर्श के रूप में की गई है। उसमें बताया गया है कि जो पुरुष विशेष सांसारिक क्लेश, कर्म विपाक तथा उनके फल से सदा अछता रहा है. वही ईश्वर है। उसी का ध्यान करने से चित्त स्थिर होता है. और साधक उत्तरोत्तर विशद्धि तथा ऊंची समाधि को प्राप्त करता है। जैन धर्म में भी अरिहन्त का ध्यान उसी उद्देश्य से किया जाता है। किन्तु अरिहन्त और योगदर्शन के ईश्वर में भी एक भेद है। योगदर्शन का ईश्वर कभी कर्मों से लिप्त नहीं हुआ। वह सदा से अलिप्त है। इसके विपरीत अरिहन्त हमारे सरीखी साधारण अवस्था से उठकर परम अवस्था को पहुंचे हैं। वे जीवात्मा से परमात्मा बने हैं। योगदर्शन का ईश्वर सदा से सिद्ध है। जैन धर्म के श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 41 / प्रस्तावना
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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