________________ 2. अंतरात्मा—सम्यक्त्व प्राप्त करने के पश्चात् और पूर्ण विकास से पहले, साधक आत्मा। 3. परमात्मा—पूर्ण विकास कर लेने के पश्चात् / गुणस्थानों की दृष्टि से उन्हीं को चौदह श्रेणियों में बांटा गया है। कर्म सिद्धान्त की अपेक्षा से उन्हें चार श्रेणियों में बांटा गया है। आत्मा में जो चार अनन्त बताए गए हैं उनको दबाने वाले चार कर्म हैं। ज्ञानाबणीय कर्म अनन्त ज्ञान को ढांपता है, दर्शनावरणीय दर्शन को, अन्तराय वीर्य को और मोहनीय आध्यात्मिक सुख को। इनमें से पहले तीन कर्मों का नाश विकास की अन्तिम अवस्था में होता है। बीच की अवस्था में जो कास होता है वह मोहनीय कर्म के क्रमिक हटने से सम्बन्ध रखता है। ज्यों-ज्यों मोहनीय का प्रभाव कम होता जाता है, त्यों-त्यों जीव ऊंची श्रेणियों पर चढ़ता जाता है, और अन्त में उसका सर्वनाश करके कैवल्य को प्राप्त कर लेता है। बौद्ध दर्शन में जो स्थान तृष्णा का है, वही स्थान जैन दर्शन में मोह का है। जिसे कर्म सिद्धान्त में मोहनीय कर्म कहा जाता है। इसके दो भेद हैं—दर्शनमोहनीय और चारित्रमोहनीय / दर्शन का अर्थ है श्रद्धा / दर्शनमोहनीय मिथ्यात्व या विपरीत श्रद्धा को उत्पन्न करता है। उसका प्रभाव हटने पर ही जीव सम्यक्त्व प्राप्त कर सकता है। इसलिए आध्यात्मिक विकास-क्रम में पहला कदम सम्यक्त्व है। चारित्रमोहनीय चारित्र का बाधक है। उसके कारण जीव क्रोध, मान, माया तथा लोभ में फंसा रहता है। उपरोक्त कषायों की तीव्रता एवं मन्दता के आधार पर प्रत्येक के चार भेद किए गए हैं—अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरणी, प्रत्याख्यानावरणी और संज्वलन। इनमें अनन्तानुबन्धी तीव्रतम है। उसके रहते जीव सम्यक्त्व को भी नहीं प्राप्त कर सकता। उसे तथा दर्शन मोहनीय को दूर करके ही जीव सम्यक्त्व को प्राप्त कर सकता है। दूसरी शक्ति अप्रत्याख्यानावरणी को दूर करके वह श्रावक बनता है, तीसरी को दूर करके साधु और चौथी को दूर करके परमात्मा / उसी आधार पर विकास मार्ग का भी नीचे लिखी चार श्रेणियों में विभाजन किया जाएगा सम्यग्दृष्टि, श्रावक, साधु और केवली। सम्यग्दृष्टि ___ आत्म शुद्धि के मार्ग पर चलने की पहली सीढ़ी सम्यक्त्व है। इसी को सम्यग्दर्शन या सम्यग्दृष्टि भी कहा जाता है। सम्यक्त्व का अर्थ है ठीक रास्ते को प्राप्त करना / जब जीव इधर-उधर भटकना छोड़कर आत्म विकास के ठीक रास्ते को प्राप्त कर लेता है, तो उसे सम्यग्दृष्टि या सम्यक्त्व वाला कहा जाता है। ठीक मार्ग को प्राप्त करने का अर्थ है, मन में पूरी श्रद्धा होना कि यही मार्ग कल्याण की ओर ले जाने वाला है। उस मार्ग पर चलने की रुचि जागृत होना और विपरीत मार्गों का परित्याग करना। शास्त्रों में सम्यक्त्व के दो रूप मिलते हैं—पहला बाह्य रूप है। इसका अर्थ है देव, गुरु और धर्म श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 40 / प्रस्तावना