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________________ (2) परार्थवृत्ति में मनुष्य 'स्व' के क्षेत्र का कुटुम्ब, पारवार, जाति तथा राष्ट्र से बढ़ाता हुआ समस्त विश्व तक फैला देता है। उसके हित को अपना हित तथा अहित को अपना अहित मानने लगता है। क्षेत्र जितना संकुचित होगा व्यक्ति उतना ही स्वार्थी कहा जाएगा। तथा क्षेत्र जितना विकसित होगा उतना ही परार्थी। जाति, राष्ट्र, सम्प्रदाय आदि की उन्नति के लिए जो कार्य किये जाते हैं वे सभी इस कोटि में आते हैं। (3) परार्थ की तरतमता को जानने के चार तत्त्व हैं—(१) क्षेत्र की व्यापकता (2) त्याग की उत्कटता (3) उद्देश्य की पवित्रता और (4) परिणाम का मंगलमय होना। क्षेत्र की व्यापकता का निर्देश ऊपर किया जा चुका है। यहां यह प्रश्न उपस्थित होता है, क्या क्षेत्र विशेष तक सीमित परार्थ वृत्ति धर्म का अङ्ग बन सकती है? एक व्यक्ति अपनी जाति अथवा राष्ट्र की सीमा में प्रत्येक सदस्य का कल्याण एवं विकास चाहता है और इसके लिए उस क्षेत्र के बाहर हिंसा तथा अत्याचार करने में भी नहीं हिचकता। हिटलर, मुसोलिनी, स्टालिन आदि के उदाहरण हमारे सामने हैं। उन्होंने जिस वर्ग या क्षेत्र को ऊंचा उठाया वह उन्हें देवता या ईश्वर मानता रहा किन्तु बाह्य क्षेत्र के लिए वे दानव सिद्ध हुए। दूसरी श्रेणी उन लोगों की है जो अपने क्षेत्र में परस्पर रचनात्मक परार्थवृत्ति का अनुसरण करते हैं। किन्तु उसके बाहर तटस्थ हैं। तीसरे वे हैं जिनका लक्ष्य व्यापक है, किन्तु कार्यक्षेत्र की दृष्टि से अपनी शक्ति तथा मर्यादा के अनुसार आगे बढ़ते हैं अर्थात् वे समस्त विश्व का कल्याण चाहते हैं। किन्तु रचनात्मक कार्य करने के लिए सुबिधानुसार क्षेत्र चुन लेते हैं। उपरोक्त दोनों वर्ग धर्म की कोटि में आते हैं। - यहां एक प्रश्न और उपस्थित होता है, परार्थ के लिए रचनात्मक कार्य का रूप क्या होगा? क्या कोई ऐसा कार्य है जिससे किसी को कष्ट न पहुंचे? एक व्यापारी अपने जाति-बन्धु को ऊंचा उठाने के लिए व्यापार में लगा देता है और कुछ ही दिनों में उसे लखपति बना देता है। क्या यह उपकार धर्म कहा जाएगा? इसके उत्तर में कई अपेक्षाएं हैं, व्यापारी ने यदि उसकी सहायता किसी लौकिक स्वार्थ से की है, तो वह कार्य सामाजिक दृष्टि से उचित होने पर भी धर्म कोटि में नहीं आता। किन्तु यदि ऐसा कोई स्थूल स्वार्थ नहीं है तो स्वार्थ-त्याग की दृष्टि से वह धर्म है। साथ ही उसका परिणाम दरिद्र जनता का शोषण है तो वह आदि में मंगल होने पर भी परिणाम में मंगल नहीं है। परिणाम में मंगल तभी हो सकता है जब व्यक्ति अपने आध्यात्मिक गुणों का विकास करता हुआ ऊंचा उठे और किसी के लिए अमंगल न बने / भौतिक दृष्टि से की गई सहायताओं में धर्म का यह शुद्ध रूप नहीं आता। वह त्यागी जीवन में ही आ सकता है। अतः जिस प्रकार परम मंगल की पराकाष्ठा भौतिक अस्तित्व की समाप्ति में होती है इसी प्रकार परम-मंगल की शुद्ध साधना मुनि जीवन में ही हो सकती है। सामाजिकता और शुद्ध धर्म का मेल सम्भव नहीं। . फिर भी व्यक्ति जब तक उस स्तर पर नहीं पहुंचता तब तक स्वार्थवृत्ति से ऊपर उठकर धीरे-धीरे सामाजिकता का विकास उपादेय ही है। परार्थ परमार्थ पर पहुंचने की साधना है। स्वार्थ के | श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 37 / प्रस्तावना
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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