________________ चरित्र दोष है। इन दोनों को दूर करके ही आत्मा परम-आत्मा बन सकता है। 3. मनुष्य के सुख दुख पर किसी बाह्य शक्ति का नियंत्रण नहीं है, व्यक्ति स्वयं ही उनका कर्त्ता तथा भोक्ता है। 4. मनुष्य सर्वोपरि है, चारित्र सम्पन्न होने पर वह देवों का भी पूज्य बन जाता है। 5. मनुष्यों में परस्पर जन्मकृत कोई भेद नहीं है। ब्राह्मण या शूद्र सभी साधना के द्वारा परम-पूज्य अर्थात् देवाधिदेव बन सकते हैं। जैन धर्म और व्यक्ति - व्यक्तिगत निर्माण की दृष्टि से देखा जाए तो जैन धर्म में वे सभी तत्त्व मिलते हैं जो पूर्णतया विकसित एवं शक्तिशाली व्यक्तित्व के लिए आवश्यक हैं। ____ हमारा व्यक्तित्व कितना दुर्बल या सबल है इसकी कसौटी प्रतिकूल परिस्थिति है। जो मनुष्य प्रतिकूल परिस्थितियों में घबरा जाता है उसका व्यक्तित्व उतना ही दुर्बल समझना चाहिए। प्रतिकूल परिस्थिति को हम नीचे लिखे तीन भागों में बांट सकते हैं. 1. प्रतिकूल व्यक्ति जो व्यक्ति हमारा शत्रु है, हमें हानि पहुंचाने वाला है या हमारी रुचि के अनुकूल नहीं है, उसके संपर्क में आने पर यदि हम घबरा जाते हैं या मन ही मन कष्ट का अनुभव करते हैं तो यह व्यक्तित्व की पहली दुर्बलता है। जैन दृष्टि से इसका अर्थ होगा हमने अहिंसा को जीवन में नहीं उतारा और सर्वमैत्री का पाठ नहीं सीखा / .. 2. प्रतिकूल विचार—अपने जमे हुए विश्वासों के विपरीत विचार उपस्थित होने पर यदि हम घृणा का अनुभव करते हैं, उन विचारों को नहीं सुनना चाहते या उन पर सहानुभूति के साथ मनन नहीं कर सकते तो यह दूसरी दुर्बलता है। जैन दृष्टि के अनुसार इसका अर्थ होगा कि हमने स्याद्वाद को जीवन में नहीं उतारा। . 3. प्रतिकूल वातावरण—इसके तीन भेद हैं (क) इष्ट की अप्राप्ति—अर्थात् धन-सम्पत्ति, सुख-सुविधाएं, परिजन आदि जिन वस्तुओं को हम चाहते हैं उनका न मिलना। (ख) अनिष्ट की प्राप्ति—अर्थात् रोग, प्रियजन का वियोग, सम्पत्ति-नाश आदि जिन बातों को हम नहीं चाहते उनका उपस्थित होना / ... (ग) विघ्न-बाधाएं अभीष्ट लक्ष्य की सिद्धि में विविध प्रकार की अड़चनें आना। इन तीनों परिस्थितियों में घबरा जाना व्यक्तित्व की तीसरी दुर्बलता है। जैन दृष्टि से इसका अर्थ होगा हमें कर्म सिद्धान्त पर विश्वास नहीं है। दूसरे शब्दों में व्याकुलता, घबराहट एवं उत्साहहीनता के दो कारण हैं। या तो हम परावलम्बी हैं अर्थात् हम मानते हैं की सुख की प्राप्ति आत्मा को छोड़कर अन्य तत्त्वों पर | श्री उपासक दशांग सूत्रम् | 35 / प्रस्तावना