SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 39
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ पहुंचने के लिए पथ-प्रदर्शक का और धर्म वह पथ है। देव या गुरु के स्थान पर किसी लौकिक या लोकोत्तर व्यक्ति विशेष को नहीं रखा गया, न ही किसी वर्ण विशेष को महत्व दिया गया है। किन्तु आध्यात्मिक विकास के द्वारा प्राप्त पदों को महत्व दिया गया है। जो विकास की सर्वोच्च भूमिका पर पहुंच गए हैं वे देव हैं और जो साधक होने पर भी अपेक्षाकृत विकसित हैं, वे गुरु हैं। जैन परम्परा में नमस्कार मंत्र तथा मंगल पाठ का बहुत महत्व है। प्रत्येक कार्य के प्रारम्भ में . उसका उच्चारण किया जाता है। नमस्कार मन्त्र में पांच पदों को नमस्कार है। अर्हन्त अर्थात् . जीवन-मुक्त, सिद्ध अथवा पूर्ण-मुक्त। ये दोनों देव तत्त्व के रूप में माने जाते हैं। शेष तीन हैं—आचार्य, उपाध्याय और साधु, ये तीनों गुरुतत्त्व में आते हैं। __ मंगल-पाठ में अर्हन्त, सिद्ध, साधु एवं धर्म इन चार को मंगल, लोकोत्तम तथा शरण बताया गया है। जैन अनुष्ठानों में सामायिक के बाद प्रतिक्रमण का स्थान है। इसका अर्थ है—प्रत्यालोचना। व्यक्ति जानकर या अनजान में किये गए कार्यों का पर्यवेक्षण करता है और अङ्गीकार किए हुए व्रतों में किसी प्रकार की स्खलना के लिए पश्चात्ताप प्रकट करता है। यह प्रतिक्रमण रात्रि के लिए प्रातः सूर्योदय से पहले तथा दिन के लिए सायं सूर्यास्त होने पर किया जाता है। साधु के लिए दोनों समय वाला प्रतिक्रमण करना आवश्यक है। पन्द्रह दिन के लिए किया जाने वाला पाक्षिक, चार मास के पश्चात् किया जाने वाला चातुर्मासिक तथा वर्ष के अन्त में किया जाने साम्वत्सरिक प्रतिक्रमण कहलाता है। जिस दिन यह प्रतिक्रमण किया जाता है उसे संवत्सरी या पर्युषण कहते हैं। यह जैन : धर्म का सबसे बड़ा पर्व है। जो व्यक्ति उस दिन प्रतिक्रमण करके पश्चात्ताप एवं प्रायश्चित्त द्वारा आत्मशुद्धि नहीं करता, उसे अपने को जैन कहने का अधिकार नहीं है। प्रतिक्रमण के अन्त में संसार के समस्त जीवों से क्षमा प्रार्थना द्वारा मैत्री की घोषणा की जाती है। यह घोषणा प्रतिक्रमण का निष्कर्ष है। वह इस प्रकार है खामेमि सव्वे जीवा, सव्वे जीवा खमंतु मे। ' मित्ती मे सव्वभूएसु, वेरं मझं ण केणई // अर्थात् मैं सब जीवों को क्षमा प्रदान करता हूं, सब जीव मुझे क्षमा प्रदान करें। सब प्राणियों से मेरी मित्रता है, किसी से वैर नहीं है। जैन धर्म का लक्ष्य बिन्दु संक्षेप में जैन धर्म का लक्ष्य बिन्दु नीचे लिखे सिद्धान्तों में प्रकट किया जा सकता है१. प्राणी मात्र के प्रति समता की आराधना ही जैन साधना का लक्ष्य है। 2. विषमता का कारण मोह है। विचारों का मोह एकान्त या दृष्टि दोष है। व्यवहार में मोह, | श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 34 / प्रस्तावना
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy