________________ की उत्कृष्ट मात्रा है वह मिथ्यात्वी है। अर्थात् वह आत्म-विकास के मार्ग पर आया ही नहीं। वह दृष्टि एवं चारित्र दोनों दृष्टियों से अविकसित है। दूसरी श्रेणी अपेक्षाकृत मन्द कषाय वाले उन व्यक्तियों की है जो आत्म-विकास के मार्ग को अच्छा तो मानते हैं किन्तु उस पर चलने में अपने आप को असमर्थ पाते हैं। वे सम्यग् दृष्टि हैं अर्थात् दृष्टि की अपेक्षा ठीक मार्ग पर होने पर भी चारित्र की दृष्टि से अविकसित हैं। तीसरी श्रेणी मन्दतर कषाय वाले गृहस्थों की है जो चारित्र को आंशिक रूप से अपनाते हैं। चौथी श्रेणी मन्दतम कषाय मुनियों की है जो चारित्र को पूर्णतया अपनाते हैं। कषाय के पूर्णतया नष्ट हो जाने पर व्यक्ति कैवल्य या आत्म-विकास की पर्णता को प्राप्त कर लेता है। उपरोक्त श्रेणी विभाजन का आधार कर्म सिद्धान्त है और यह माना गया है कि प्राणियों में विषमता का कारण कर्म बन्धन है। व्यक्ति के भले-बुरे आचार एवं विचारों के अनुसार आत्मा के साथ कर्म परमाणु बंध जाते हैं और वे ही सुख-दुख आदि का कारण बनते हैं। वे जैसे-जैसे दूर होते जाते हैं आत्मा अपने शुद्ध स्वरूप को प्राप्त करता जाता है। पूर्णतया शुद्ध आत्मा ही परमात्मा कहा जाता है। जितने आत्मा इस प्रकार शुद्ध हो गए हैं सभी परमात्मा बन गए हैं। उनके अतिरिक्त जगत का रचयिता या नियन्ता कोई व्यक्ति विशेष नहीं है। _ व्यवहारिक क्षेत्र में विषमता का कारण ममत्व या परिग्रह है। वह दो प्रकार का है—बाह्य वस्तुओं का परिग्रह और विचारों का परिग्रह / वस्तुओं का परिग्रह आचार में हिंसा को जन्म देता है और विचारों का परिग्रह विचार सम्बन्धी हिंसा को। : जैन साधुओं के लिए पांच महाव्रतों का विधान है—अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह / वास्तव में देखा जाए तो ये अहिंसा या अपरिग्रह का ही विस्तार हैं। अपरिग्रह के बिना अहिंसा की साधना नहीं हो सकती। ये पांचों महाव्रत जैन साधना के मूल तत्व हैं। __ जैन धर्म, दर्शन एवं परम्परा को विहंगम दृष्टि से देखा जाए तो प्रतीत होता है कि सब का केन्द्रबिन्दु एक मात्र समता है। वही समता नीचे चार क्षेत्रों में बंट गई है 1. आचार में समता-अहिंसा जैन आचार का मूल तत्त्व / 2. विचार में समता-स्याद्वाद जैन-दर्शन का मूल तत्त्व / 3. प्रयत्न और फल में समता—कर्म सिद्धान्त जैन नीतिशास्त्र का मूल तत्त्व / 4. सामाजिक समता-व्यक्ति पूजा के स्थान पर गुण पूजा जैन संघ व्यवस्था का मूल आधार | प्रथम तीन समताओं के विषय में संक्षिप्त बताया जा चुका है। चौथी के विषय में कुछ लिखने की आवश्यकता है। ___जो व्यक्ति जैन धर्म स्वीकार करता है उसे कुदेव, कुगुरु और कुधर्म को छोड़कर सुदेव, सुगुरु और सुधर्म में विश्वास प्रकट करना होता है। देव आदर्श का कार्य करते हैं, गुरु उस आदर्श पर तत्वा | श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 33 / प्रस्तावना