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________________ मार्ग है। समणे के साथ जो निग्गंथे (निर्ग्रन्थ) विशेषण आया है उससे यह सिद्ध करना है कि निर्ग्रन्थ श्रमणों का एक भेद था। __'सुहम्मा—सुधर्मन्'–भगवान महावीर के ग्यारह गणधर अर्थात् प्रधान शिष्य थे। उनमें सुधर्मा स्वामी पांचवें हैं। सभी गणधर अपने पूर्व जीवन में कर्मकाण्डी श्रोत्रीय ब्राह्मण थे। भगवान महावीर के पास शास्त्रार्थ के लिए आये और अपनी शंकाओं का उचित समाधान प्राप्त करके उनके शिष्य हो गए। सुधर्मा स्वामी को शंका थी कि प्रत्येक जीव जिस योनि में है मरकर भी उसी योनि को प्राप्त करता है। भगवान महावीर ने बताया कि ऐसा नहीं है। जीव अपने भले बुरे कर्मों के अनुसार नई-नई योनियों को प्राप्त करता रहता है। सेट्ठि—(श्रेष्ठिन्) इस शब्द का रूप सेठ या सेट्ठी है और आज भी इसका वही अर्थ है जो उन दिनों में था। उस समय विविध प्रकार के व्यापारियों एवं शिल्पियों के 18 गण माने जाते थे। सेट्ठि उन सबका मुखिया होता था और प्रत्येक कार्य में उनकी सहायता करता था। आजकल वाणिज्य संघ के अध्यक्ष का जो स्थान है वही स्थान उन दिनों सेट्टी का था। ‘सेट्टि' शब्द का निर्देश राज्य मान्य व्यक्ति के रूप में भी मिलता है जो अपने मस्तक पर सुवर्णपट धारण किया करता था। संस्कृत व्याकरण के अनुसार श्रेष्ठं शब्द का अर्थ है—प्रशस्ततम या सर्वोत्तम, तदनुसार श्रेष्ठि का अर्थ है वह व्यक्ति जो सर्वोत्तम पद पर प्रतिष्ठित है। - हिरण्णकोडीओ वैदिक साहित्य को देखने पर पता चलता है कि उन दिनों धन-सम्पत्ति का परिमाण गाय या पशुओं की संख्या में होता था। लेन-देन तथा वाणिज्य का आधार भी वही था। छान्दोग्य उपनिषद् में राजा जनक ब्रह्म-विद्या सम्बन्धि शास्त्रार्थ में विजय प्राप्त करने वाले ऋषियों के लिए सौ गौएं देने की घोषणा करता है। कठोपनिषद् में आता है कि वाजश्रवा नामक ऋषि ने स्वर्ग प्राप्त करने के लिए सर्वस्व-दक्षिणा यज्ञ किया। यज्ञ के अन्त में ब्राह्मणों को दक्षिणा के रूप में जो गौएं प्राप्त हुईं वे बूढ़ी तथा मरणासन्न थीं। किन्तु प्रस्तुत सूत्र से पता चलता है कि उस समय गाय के स्थान पर सिक्कों का प्रयोग होने लगा था। हिरण्य-सुवर्ण प्रधान सिक्का हिरण्य या सुवर्ण कहलाता था। यह 32 रत्ती सोने का होता था। अनेक स्थानों पर सुवर्ण और हिरण्य शब्दों का एक साथ उल्लेख है और अनेक स्थानों पर वे अलग-अलग हैं। भण्डारकर का कथन है कि जहां सुवर्ण शब्द हिरण्य के साथ आता है, वहां उसका अर्थ सुवर्ण न होकर एक प्रकार का सिक्का है, जिसका वजन 7 माशे 32 रत्ती होता था। - 2. सुवर्ण-माष—(Ancient Indiao Numismtics, P. 51) इससे छोटा सिक्का सुवर्ण-माष होता है। यह भी सोने का हुआ करता था इसका उल्लेख उत्तराध्ययन में आया है। श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 363 / परिशिष्ट
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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