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________________ 4. संस्था—इसका अर्थ है मिलकर बैठना। यह शब्द उपनिषदों में मिलता है, जहां ऋषि-मुनि ' एक साथ बैठकर आत्म-चर्चा करते हैं। 5. समिति—यह शब्द 'इ' धातु से बना है जिसका अर्थ है 'चलना', समिति का अर्थ है एक साथ मिलकर प्रगति करना। 6. परिषद् इसका अर्थ है चारों ओर ‘बैठना' / जहां गुरु या राजा के रूप में एक व्यक्ति केन्द्र . में बैठता है और दूसरे सभासद के रूप में घेरे रहते हैं उसे परिषद् कहा जाता है। 'सम्' उपसर्ग से बने हुए उपरोक्त शब्दों में किसी एक की प्रधानता का द्योतक है। वहां सब मिलकर चर्चा करते हैं किन्तु परिषद् में एक बोलता है और दूसरे सुनते हैं। 7. उपनिषद्—इसका अर्थ है पास में बैठना। गुरु शिष्य को पास में बैठाकर रहस्य के रूप में जो उपदेश देता है उसी का नाम 'उपनिषद्' है। 'समणे' (अ. 1 सू. २)—आगम साहित्य में जहां भगवान् महावीर का नाम आया है उसके साथ 'समणे निग्गंथे' विशेषण भी मिलता है। साधारणतया इसका संस्कृत रूपान्तर श्रमण तथा अर्थ मुनि या साधु किया जाता है। उत्तराध्ययन में 'समयाए समणो होइ' पाठ आया है। इसका अर्थ है 'श्रमण समता से होता है।' श्रमण शब्द भारतीय संस्कृति की एक महत्वपूर्ण धारा. का प्रतीक है जिसका ब्राह्मण धारा के साथ संघर्ष रहा। हेमचन्द्र ने श्रमण और ब्राह्मण के परस्पर विरोध को शाश्वत वैर के रूप में प्रकट किया है। श्रमण परम्परा के मुख्य तीन तत्त्व हैं 1. श्रम व्यक्ति अपने ही परिश्रम एवं तपस्या द्वारा ऊंचा उठ सकता है। इसके विपरीत ब्राह्मण परम्परा में यज्ञ का अनुष्ठान पुरोहित करता है, बलिदान पशु का होता है और फल यजमान को मिलता है। 2. सम—समस्त प्राणियों में मौलिक समानता है। प्रत्येक प्राणी साधना द्वारा उच्चतम पद को प्राप्त कर सकता है। प्रत्येक प्राणी को सुख अच्छा लगता है और दुख बुरा / आचाराङ्ग सूत्र में भगवान महावीर कहते हैं कि जब तुम किसी को मारने या कष्ट देने की इच्छा करते हो तो उसके स्थान पर अपने को रखकर सोचो। परस्पर व्यवहार में समता का ही दूसरा नाम अहिंसा है जो कि जैन आचार शास्त्र का मूल है। विचार में समता का अर्थ 'स्याद्वाद' है। इसका अर्थ है, हम अपने विचारों को जितना महत्व देते हैं उतना ही दूसरे के विचारों को भी दें। केवल दूसरे के होने के कारण उन्हें बुरा न मानें और केवल अपने होने के कारण उन्हें अच्छा न मानें / 3. शम—इसका अर्थ है क्रोध, मान, माया और लोभ आदि कषायों तथा इन्द्रिय लालसाओं का शमन / श्रमण परम्परा का यह विश्वास है कि कषायों एवं भोगलालसाओं का शमन ही कल्याण का श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 362 / परिशिष्ट
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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