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________________ की प्रथा थी। पंचम शताब्दी में देवर्द्धिगणिक्षमाश्रमण के समय जब आगमों को लिपिबद्ध किया गया तो एक ही सरीखे वर्णन को पुनः पुनः लिखने के स्थान पर केवल संकेत करके छोड़ दिया गया। इससे यह तथ्य प्रकट होता है, कि इस प्रकार के वर्णन केवल अर्थवाद थे और धर्मोपदेश को रोचक बनाने के लिए किये जाते थे। उन्हें ऐतिहासिक महत्व नहीं दिया जा सकता। दूसरी बात यह है कि इस प्रकार के संकेतों के आधार पर आगमों के पौर्वापर्य का निर्णय नहीं करना चाहिए, क्योंकि यह संकेत लिपिकाल से सम्बन्ध रखते हैं, रचना काल से नहीं। वड्डावए-वर्धापक (अ. 1 सू. 5.) / सव्व कज्ज वड्डावए (सर्व कार्य वर्धापकः)। यह आनन्द श्रावक के विशेषण के रूप में आया है। इसका अर्थ है सब कार्यों को बढ़ाने वाला। यह विशेषण श्रावक के महत्व को प्रकट करता है, इससे प्रकट होता है कि श्रावक प्रत्येक व्यक्ति को उसके कार्य में प्रोत्साहन देता है, उसे आगे बढ़ाता है और इस प्रकार समाज की उन्नति में सहायक बनता है। . . . समोसरिए-समवसृतः अ. 1 सू. २–प्राचीन साहित्य में धार्मिक तथा अन्य प्रकार की सभाओं के लिए समवसरण, सङ्गीति, सङ्गत, संस्था, समिति, परिषद्, उपनिषद् आदि अनेक शब्द आए हैं। वे सब स्थूल रूप में एकार्थक होने पर भी सूक्ष्म भेद प्रकट करते हैं जो प्रत्येक परम्परा की विभिन्न दृष्टियों के सूचक हैं। इन शब्दों में सम् उपसर्ग प्रायः सर्वत्र है। यह समूह या एकत्रित होने का बोधक है। 1. समवसरण यह शब्द 'स' धातु से बना है जिसका अर्थ है घूमना या किसी लक्ष्य को सामने रखे बिना चलते रहना। इसके पहले लगा हुआ 'अव' उपसर्ग 'नीचे की ओर' का द्योतक है। जिस प्रकार पानी बिना किसी लक्ष्य को सामने रखे नीचे की ओर बहने लगता है उसी प्रकार भगवान् सर्वसाधारण को उपदेश देने के लिए स्थान विशेष को लक्ष्य में न रखकर घूमते रहते हैं। इस प्रकार घूमते हुए जहां वे अटक जाते हैं और उपदेश देने लगते हैं उसी का नाम समवसरण है। तीर्थंकरों के समवसरण में सब जातियों के स्त्री पुरुष ही नहीं देवता और पशु भी उपदेश श्रवण के लिए उपस्थित होते हैं। 2. सङ्गीति—शब्द बौद्ध परम्परा में प्रचलित है। इसका अर्थ है इकट्ठे होकर गाना। बौद्ध भिक्षुओं ने इकट्ठे होकर त्रिपिटकों का पाठ किया उसी को सङ्गीति कहा गया। 3. सङ्गत–वैदिक परम्परा में, साधु-संन्यासियों या परिव्राजकों का इकट्ठा होना सङ्गत कहा जाता है। इसका अर्थ है एक साथ मिलकर चलना / इसी का समानार्थक सङ्गम शब्द है जिसका अर्थ है नदियों का मिलकर बहना / श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 361 / परिशिष्ट
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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