________________ प्राण की हिंसा है। इसी प्रकार सुनने, देखने, सूंघने, स्वाद लेने अथवा स्पर्श करने से रोकना तत्तत् प्राणों की हिंसा है। पासंड (पाषण्ड) अ. 1. सू. ४४—इस शब्द का आधुनिक रूप पाखण्ड है जिसका अर्थ है ढोंग / पाखण्डी-ढोंगी को कहा जाता है। परन्तु प्राचीन समय में यह अर्थ नहीं था। उस समय इसका अर्थ था धार्मिक सम्प्रदाय या पन्थ / अशोक की धर्मलिपियों में भी इस शब्द का प्रयोग इसी अर्थ में हुआ है। इसीलिए सम्यक्त्व व्रत के अतिचारों में पासंड शब्द से पहले 'पर' शब्द लगा हुआ है। इसका अर्थ है दूसरे धर्म वाले की प्रशंसा करना या उसके साथ परिचय बढ़ाना श्रावक के लिए वर्जित पोसहोववास (पौषधोपवास) अ. 1 सू. १६—यह शब्द पौषध और उपवास (पौषधोपवास) दो शब्दों से बना है। पौषध शब्द संस्कृत के उपवास का रूपान्तर है। इसका अर्थ है धर्माचार्य के पास निवास करना / जब आठ पहर के लिए उपवासपूर्वक घर से अलग होकर धर्माचार्य के पास या धर्म स्थान में रहा जाता है तो उसे पौषधोपवास कहते हैं। यह श्रावक का ग्यारहवां व्रत है और व्रत शुद्धि के लिए किया जाता है। जैन परम्परा में अष्टमी, चतुर्दशी आदि पर्व तिथियों पर इसे करने की प्रथा है। पर्दूषण अर्थात् सांवत्सरिक पर्व के दिन तो प्रायः सभी वयस्क जैन इसकी आराधना करते हैं। माडंबिय (मांडबिक) अ. 1 सू. १२-मडंब का अर्थ है 18 हजारं गांवों का समूह, इसके मुखिया या अध्यक्ष को माडंबिक कहा जाता था। जो स्थान आजकल जिलाधीश या डिप्टी कमीश्नर का है वही उन दिनों माडंबिक का था। राजा-उपासकदशाङ्ग में राजा शब्द का उल्लेख दो रूपों में आया है। पहले रूप में यह जितशत्रु, श्रेणिक तथा कूणिक के साथ आया है जहां इसका अर्थ सम्राट् या राज्य का सर्वोच्च सत्ताधीश है। बुद्ध के समय मगध साम्राज्य के साथ वैशाली का गणतन्त्रीय शासन भी विद्यमान था / वहां सर्वोच्च सत्ता किसी एक व्यक्ति के हाथ में नहीं थी। उसमें अनेक गण सम्मिलित थे। प्रत्येक गण से एक व्यक्ति प्रतिनिधि के रूप में निर्वाचित होकर आता था और वह राजा कहा जाता था। भगवान महावीर के पिता सिद्धार्थ ऐसे ही राजा थे। आनन्द श्रावक के वर्णन में आया है कि वह अनेक राजाओं, ईश्वरों, तलवरों मांडबिकों आदि में प्रतिष्ठित था। वहां राजा शब्द का अर्थ इसी प्रकार चुने हुए प्रतिनिधि से है। इनकी संख्या घटती बढ़ती रहती थी। उन्हें राजा, गणराजा या संघमुख्य कहा जाता था। वण्णओ-सूत्रों में स्थान-स्थान पर 'वण्णओ' शब्द आया है। इसका अर्थ है अन्यत्र सूत्र में वर्णित / प्राचीन परम्परा में धर्मोपदेश करते समय इन स्थानों पर राजा, नगरी, चैत्य आदि के वर्णन श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 360 / परिशिष्ट