________________ जैन धर्म प्रसिद्ध इतिहासकार टायन बी. के शब्दों में विश्व की सबसे बड़ी समस्या है मनुष्य का 'स्वकेन्द्रित होना' / प्रत्येक मनुष्य अपने को केन्द्र में रखकर सोचता है, अपने ही सुख-दुख का ध्यान रखता है तथा अपने ही विचारों को सर्वोपरि मानता है। धर्म का लक्ष्य है उसे 'स्व' परिधि से निकाल कर 'सर्व' की ओर उन्मुख करना / 'स्व' से सर्व की ओर अग्रसर होने के दो प्रेरक तत्व रहे हैं—(१) स्वार्थ और (2) परमार्थ। अपने भौतिक अस्तित्व के संरक्षण, धन-सम्पत्ति तथा अन्य लौकिक आकांक्षाओं की पूर्ति के लिए भी मनुष्य अपने 'स्व' को निजी व्यक्तित्व से बढ़ाकर कुल, परिवार, जाति, प्रांत या राष्ट्र तक विस्तत कर देता है। विभिन्न परिधियों से सीमित परस्पर सहयोग एवं सहानुभूति की इस भावना को कुल-धर्म, जाति-धर्म, राष्ट्र-धर्म आदि शब्दों से कहा जाता है। प्राचीन समय में ऐसा कोई लौकिक स्वार्थ नहीं रहा जो मनुष्य को राष्ट्र की सीमा से आगे ले जा सके। परिणामस्वरूप बहुत से धर्म राष्ट्र या जाति तक सीमित रह गए। उदाहरण के रूप में ब्राह्मण धर्म राष्ट्र तक सीमित रहा। और यहूदी एवं पारसी धर्म जाति विशेष तक। इन सब धर्मों को लौकिक धर्म कहा गया। इसके विपरीत कुछ धर्मों ने मानवता की समस्याओं को सुलझाने के लिए आध्यात्मिकता का आश्रय लिया। उन्होंने दार्शनिक चिन्तन द्वारा यह प्राप्त किया कि भौतिक अस्तित्व तथा बाह्य वस्तुओं के प्रति ममत्व ही सब समस्याओं का बीज है। ऐसे धर्मों के सामने जाति या भूगोल सम्बन्धी कोई . परिधि न थी। वे लोकोत्तर धर्म कहे गए। भारत की लोकोत्तर-धर्म परम्पराओं में तीन दृष्टिकोण मिलते हैं। पहला दृष्टिकोण अद्वैतवादी परम्पराओं का है। उनकी मान्यता है कि 'स्व' को इतना व्यापक बना दो, जिसमें सब कुछ समा जाए। 'पर' कुछ न रहे। जब तक 'दूसरा' है, भय बना रहेगा (द्वितीयाद्वै भयम् भवति) जब सब एक ही हो गए तो कौन किससे डरेगा, कौन किस की हिंसा करेगा? दूसरा दृष्टिकोण शून्यवादी परम्पराओं का है। उनका कथन है कि परमार्थ सत्य कुछ भी नहीं है। विचार करने पर कोई पदार्थ सत्य सिद्ध नहीं होता (यथा यथा विचार्यन्ते विशीर्यन्ते तथा तथा) बौद्ध परम्परा ने मुख्यतया इस बात पर बल दिया है। जब वास्तव में सब शून्य है तो अहंता या ममता कैसी? . उपरोक्त दोनों मान्यताओं का मुख्य आधार तर्क है। लौकिक प्रत्यक्ष उनका समर्थन नहीं करता। लौकिक दृष्टि से बाह्य और आभ्यन्तर प्रतीत होने वाली सभी वस्तुएं सत्य हैं। उनमें रहने वाली अनेकता एवं विषमता भी सत्य है। इनका अपलाप नहीं किया जा सकता। फिर भी विचार करने पर ऐसा प्रतीत होता है कि समानता स्वाभाविक है और विषमता परापेक्ष। घट और पट के परमाणुओं में समानता होने पर भी रचना आदि में भेद होने के कारण विषमता हो गई। इसी प्रकार सभी जीवों या आत्माओं में मौलिक समानता होने पर भी विविध प्रकार की विकृतियों के कारण श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 31 / प्रस्तावना