________________ तो ___ अकान्तैः–स्वरूपेणाकमनीयैः जो सुन्दर न लगें अर्थात् भद्दे हों। अनिष्ट का अर्थ है जिन्हें सामने वाला न सुनना चाहता हो और अकान्त का अर्थ है जो प्रत्येक सुनने वाले को बुरे या भद्दे लगें। अनिष्ट तो सुनने वाले की अपेक्षा से है और अकान्त सर्वसाधारण की दृष्टि से। अप्रियैः—अप्रीतिकारकैः—अप्रिय अर्थात् जिन्हें सुनकर मन में अप्रसन्नता या दुख हो, यह भी सर्वसाधारण की दृष्टि से है। अमनोज्ञैः—मनसा न ज्ञायन्ते नाभिलष्यन्ते वक्तुमपि यानि तैः–अमनोज्ञ अर्थात् जिन्हें मन बोलना नहीं चाहता। अमन-आपैः—न मनसा आप्यन्ते प्राप्यन्ते चिन्तयाऽपि यानि तैः वचने चिन्तने च येषां मनो नोत्सहत इत्यर्थः—अर्थात् मन जिन्हें सोचना, विचारना भी नहीं चाहता। ___मूल पाठ में 'अमनामेहिं' शब्द आया है। किन्तु टीकाकार ने 'अमनआपैः' दिया है, दोनों का अभिप्राय एक ही है। मूलम् तए णं से भगवं गोयमे समणस्स भगवओ महावीरस्स "तह" ति एयमलैं विणएणं पडिसुणेइ, पडिसुणित्ता तओ पडिणिक्खमइ, पडिणिक्खमित्ता रायगिहं नयरं मज्झं-मज्झेणं अणुप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता जेणेव महासयगस्स समणोवासयस्स गिहे जेणेव महासयए समणोवासए तेणेव उवागच्छइ // 262 // . . छाया–ततः खलु स भगवान् गौतमः श्रमणस्य भगवतो महावीरस्य 'तथेति' एतम) विनयेन प्रतिशृणोति, प्रतिश्रुत्य ततः प्रतिनिष्क्रामति, प्रतिनिष्क्रम्य राजगृहं नगरं मध्यंमध्येनानुप्रविशति, अनुप्रविश्य येनैव महाशतकस्य श्रमणोपासकस्य गृहं येनैव महाशतकः श्रमणोपासकस्तेनैवोपागच्छति / ___ शब्दार्थ तए णं से भगवं गोयमे तदनन्तर श्री भगवान् गौतम ने, समणस्स भगवओ महावीरस्स–श्रमण भगवान् महावीर की, एयमढें इस बात को, तहत्ति—'यही ठीक है' कहकर, विणएणं पडिसुणेइ–विनय पूर्वक स्वीकार किया, पडिसुणित्ता स्वीकार कर के, तओ पडिणिक्खमइ वहां से निकले, पडिणिक्खमित्ता—निकलकर, रायगिहं नयरं मझं मज्झेणं-राजगृह नगर के बीच में, अणुप्पविसइ—प्रवेश किया, अणुप्पविसित्ता प्रवेश करके, जेणेव महासयगस्स समणोवासयस्स गिहे—जहां महाशतक श्रमणोपासक का घर था, जेणेव महासयए समणोवासए—जहां महाशतक श्रमणोपासक था, तेणेव उवागच्छइ—वहां आए / भावार्थ भगवान् गौतम ने श्रमण भगवान् महावीर के कथन को 'ठीक है' कहकर विनयपूर्वक स्वीकार किया। वे वहां से चले और राजगृह नगर में महाशतक के घर पहुंचे। श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 352 / महाशतक उपासक, अष्टम अध्ययन /