________________ भावार्थ रेवती द्वारा दूसरी तथा तीसरी बार ऐसा कहने पर महाशतक क्रुध हो गया। उसने अवधिज्ञान का प्रयोग करके रेवती का भविष्य देखा और उसने नरक में उत्पन्न होने की बात कही। हे देवानुप्रिय! मारणान्तिक संलेखना द्वारा भक्तपान का परित्याग करने वाले श्रमणोपासक को सत्य, तथ्य, तथा सद्भूत होने पर भी ऐसे वचनों का प्रयोग नहीं करना चाहिए जो अनिष्ट, अप्रिय तथा अमनोज्ञ हों। जिनके सत्य होने पर भी दूसरे को कष्ट हो। अतः तुम जाओ और महाशतक से इस बात के लिए आलोचना एवं प्रायश्चित्त के लिए कहो। टीका प्रथम अध्ययन में भी भगवान् महावीर ने गौतम स्वामी को श्रावक आनन्द के पास भेजा था। उस समय गौतम स्वामी की अपनी भूल थी और उन्हें आनन्द से क्षमायाचना के लिए भेजा गया था। उन्होंने आनन्द से कहा था कि श्रावक.को इतना विशाल अवधिज्ञान नहीं हो सकता। अतः असत्य भाषण के लिए आलोचना करो। महावीर के पास पहुंचने पर उन्हें अपनी भूल का पता लगा और भगवान् के आदेशानुसार वे क्षमा-प्रार्थना करने के लिए गए। महाशतक सच्चा होने पर भी दोषी था क्योंकि उसने ऐसी बात कही थी जो दूसरे को कष्ट देने वाली थी। जीवन के अन्तिम अर्थात् संलेखना व्रत की आराधना करते समय श्रावक को कटु वचन नहीं बोलने चाहिएं। भगवान् ने इस भूल की शुद्धि के लिए महाशतक के पास गौतम स्वामी को भेजा और कहलाया कि बात कितनी ही सत्य, तथ्य या यथार्थ हो फिर भी यदि दूसरे को कष्ट देने वाली हो, अप्रिय हो तो उसे नहीं कहना चाहिए। सूत्रकार ने यहां इस प्रकार के कथन के लिए कई विशेषण दिए हैं जो महत्वपूर्ण हैं। नीचे . टीकाकार के शब्दों के साथ उनकी व्याख्या दी जाएगी। संतेहिं—सद्भिर्विद्यमानार्थः–सत् का अर्थ है—वे वचन जिनमें कही गई बात विद्यमान हो / तच्चेहि तथ्यैस्तत्त्वरूपैर्वाऽनुपचारिकैः तच्चेहिं का अर्थ है तत्त्व या तथ्य अर्थात् जिनका प्रयोग उपचार या गौण रूप में नहीं हुआ है। हम अपने भाषण में बहुत से शब्दों का प्रयोग गौण रूप में करते हैं। उदाहरण के रूप में पराक्रमी पुरुष को सिंह कहा है क्योंकि उसमें सिंह के समान शौर्य तथा पराक्रम आदि गुण विद्यमान हैं। इसी प्रकार क्रोधी व्यक्ति को आग कहा जाता है। तेजस्वी को सूर्य कहते हैं। इसका दूसरा प्रयोग उपचार के रूप में होता है। टांगे वाले को 'ओ टांगे' कहकर पुकारना। तत्त्व वचन उसको कहते हैं जहां गौण या औपचारिक प्रयोग नहीं है अपितु शब्द अपने असली अर्थ को लिए हुए हैं। .' तहिएहिं तमेवोत्कं प्रकारमापन्नैर्न मात्रयापि न्यूनाधिकैः अर्थात् जैसे कहे गए हैं ठीक वैसे ही, जहां तनिक भी अतिशयोक्ति या न्यूनोक्ति नहीं है अर्थात् बात जितनी है उतनी ही कही गई है। उसमें न कुछ बढ़ाया गया है और न कुछ घटाया गया। अनिष्टैः अवाञ्छितैः—अनिष्ट अर्थात् अवाञ्छित जिन्हें कोई न चाहता हो / | . श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 351 / महाशतक उपासक, अष्टम अध्ययन |