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________________ झूसिय-सरीरे—जोषित शरीर होकर, भत्तपाणपडियाइक्खिए भक्तपान का प्रत्याख्यान (त्याग करके), कालं अणवकंखमाणे—मृत्यु को न चाहता हुआ, विहरइ–विचरता है। भावार्थ श्रमण भगवान महावीर ने गौतम को सम्बोधित करते हुए कहा हे गौतम ! “इसी राजगृह नगर में मेरा शिष्य महाशतक श्रावक पौषधशाला में संलेखना द्वारा भक्तपान का परित्याग करके मृत्यु की कामना न करते हुए विचर रहा है।' मूलम् तए णं तस्स महासयगस्स रेवई गाहावइणी मत्ता जाव विकड्ढेमाणी 2 जेणेव पोसहसाला जेणेव महासयए तेणेव उवागया, मोहुम्माय जाव एवं वयासी तहेव जाव दोच्चंपि तच्चंपि एवं वयासी // 260 // छाया–ततः खलु तस्य महाशतकस्य रेवती गाथापली मत्ता यावद् विकर्षयन्ती 2 येनैव पौषधशाला येनैव महाशतकस्तेनैवोपगता, मोहोन्माद—यावद् एवमवादीत् तथैव यावद् द्वितीयमपि तृतीयमप्येवमवादीत्।। शब्दार्थ तए णं—एक दिन, तस्स महासयगस्स-उस महाशतक की, रेवई गाहावइणी रेवती माथापत्नी, मत्ता जाव विकड्ढेमाणी २-उन्मत्त होकर उत्तरीय को गिराती हुई, जेणेव पोसहसाला जेणेव महासयए तेणेव उवागया जहां पौषधशाला और महाशतक श्रावक था, वहां आई, मोहुम्माय जाव एवं वयासी—यावत् मोह और उन्माद को उत्पन्न करने वाली बातें कहने लगी, तहेव—उसी प्रकार, दोच्चंपि तच्चंपि एवं वयासी—दूसरी और तीसरी बार भी वही बात कही। भावार्थ एक दिन महाशतक की पत्नी उन्मत्त होकर कपड़े बिखेरती हुई महाशतक के पास पौषधशाला में आई और महाशतक के सामने श्रृंगार भरी चेष्टाएं तथा बातें करने लगी। उसके दो तीन बार ऐसा कहने पर महाशतक को क्रोध आ गया। ___ मूलम् तए णं से महासयए समणोवासए रेवईए गाहावइणीए दोच्चंपि तच्चंपि एवं वुत्ते समाणे आसुरुत्ते 4 ओहिं पउंजइ, पउंजित्ता ओहिणा आभोएइ, आभोइत्ता रेवइं गाहावइणिं एवं वयासी–जाव उववज्जिहिसि, “नो खलु कप्पइ, गोयमा ! समणोवासगस्स अपच्छिम जाव झूसियसरीरस्स भत्त-पाणपडियाइक्खियस्स परो संतेहिं तच्चेहिं तहिएहिं सब्भूएहिं अणिठेहिं अकंतेहिं अप्पिएहिं अमणुण्णेहिं अमणामेहिं वागरणेहिं वागरित्तए / " "तं गच्छ णं, देवाणुप्पिया ! तुमं महासययं समणोवासयं एवं वयाहि “नो खलु देवाणुप्पिया ! कप्पइ समणोवासगस्स अपच्छिम जाव भत्तपाण पडियाइक्खियस्स परो संतेहिं जाव वागरित्तए / तुमे य णं देवाणुप्पिया ! रेवई गाहावइणी श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 346 / महाशतक उपासक, अष्टम अध्ययन
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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