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________________ दसगोसाहस्सिएणं वएणं होत्था और प्रत्येक में दस हजार गायों के हिसाब से आठ व्रज थे, अवसेसाणं दुवालसण्हं भारियाणं-शेष 12 भार्याओं के पास, कोल-घरिया पितृ-गृह से प्राप्त, एगमेगा हिरण्णकोडी एक-२ करोड़ सुवर्ण मुद्राएं, एगमेगे य वए दसगोसाहस्सिएणं वएणं होत्था तथा दस हजार गायों वाला एक-एक व्रज था। भावार्थ रेवती के पास पितृ-कुल से प्राप्त आठ करोड़ सुवर्ण मुद्राएं थीं और प्रत्येक में दस हजार गायों वाले आठ गोकुल थे। शेष बारह स्त्रियों में प्रत्येक के पास पितृकुल से प्राप्त एक-एक करोड़ सुवर्ण मुद्राएं और दस हजार गायों वाला एक-एक व्रज था। भगवान् का आगमन तथा महाशतक का व्रत ग्रहणमूलम् तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे। परिसा निग्गया। जहा आणंदो तहा निग्गच्छइ। तहेव सावय-धम्म पडिवज्जइ / नवरं अट्ठ हिरण्ण-कोडीओ सकंसाओ निहाणपउत्ताओ उच्चारेइ, अट्ठ वया, रेवई-पामोक्खाहिं तेरसहिं भारियाहिं अवसेसं मेहुणविहिं पच्चक्खाइ। सेसं सव्वं तहेव इमं च णं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ— “कल्लाकल्लिं च णं कप्पइ मे वेदोणियाए कंस-पाईए हिरण्ण-भरियाए संववहरित्तए" // 235 // छाया-तस्मिन् काले तस्मिन् समये स्वामी समवसृतः, परिषन्निर्गताः / यथाऽऽनन्दस्तथा निर्गच्छति / तथैव श्रावकधर्म प्रतिपद्यते, नवरमष्टहिरण्यकोट्यः सकांस्या निधान-प्रयुक्ता उच्चारयति, अष्ट व्रजाः, रेवती प्रमुखाभिस्त्रयोदशभि भार्याभिरवशेषं मैथुनविधिं प्रत्याख्याति, शेषं सर्वं तथैव / इमं च खलु एतद्रूपमभिग्रहमभिगृह्णाति—“कल्या-कल्यि कल्पते मे द्विद्रौणिक्या कांस्यपात्र्या हिरण्यभृतया संव्यवहर्तुम् / " शब्दार्थ तेणं कालेणं तेणं समएणं—उस काल और उस समय, सामी समोसढे श्रमण भगवान् महावीर स्वामी समवसृत हुए, परिसा निग्गया—परिषद् धर्म कथा सुनने को निकली, जहा आणंदो तहा निग्गच्छइ-आनन्द के समान महाशतक भी निकला, तहेव सावयधम्म पडिवज्जइ—उसने भी उसी प्रकार श्रावक धर्म अङ्गीकार किया, नवरं इतना विशेष है कि, अट्ठ हिरण्ण कोडीओ सकंसाओ निहाणपउत्ताओ—आठ करोड़ सुवर्ण मुद्राएं कांस्य द्वारा नापी हुई कोष आदि में रखने का, उच्चारेइ—उच्चारण किया, अट्ठ वया—आठ व्रज रखे, रेवई पामोक्खाहिं तेरसहिं रेवती प्रमुख 13, भारियाहिं अवसेसं मेहुण विहिं पच्चक्खाइ–भार्याओं के अतिरिक्त अन्य स्त्रियों से मैथुन सेवन का प्रत्याख्यान किया, सेसं सव्वं तहेव शेष सब उसी प्रकार आनन्द की तरह समझना चाहिए। , इमं च णं एयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ—उसने ऐसा अभिग्रह भी लिया, कल्ला-कल्लिं कप्पइ मे प्रतिदिन मुझे कल्पता है कि, वेदोणीयाए-कंसपाईए हिरण्ण भरियाए संववहरित्तए दो द्रोण जितनी कांस्य पात्र में भरी हुई सुवर्ण मुद्राओं से व्यापार करना / श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 333 / महाशतक उपासक, अष्टम अध्ययन
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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