SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 339
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ भावार्थ—उस काल उस समय भगवान् महावीर स्वामी पधारे। परिषद् दर्शनार्थ निकली / महाशतक भी आनन्द श्रावक की भान्ति निकला। और उसी प्रकार गृहस्थधर्म स्वीकार किया। विशेषता यही है कि उसने कांस्य सहित आठ-आठ करोड़ सुवर्ण मुद्राएं कोष आदि में रखने की मर्यादा की। रेवती आदि तेरह पलियों के अतिरिक्त अन्य स्त्रियों से मैथुन सेवन का परित्याग किया। अन्य सब आनन्द के समान है। उसने यह भी अभिग्रह लिया कि “मैं प्रतिदिन दो द्रोण सुवर्ण से भरे हुए कांस्य पात्रों द्वारा व्यापार करूंगा। मूलम् तए णं से महासयए समणोवासए जाए अभिगय-जीवाजीवे जाव विहरंइ // 236 // छाया–ततः खलु स महाशतकः श्रमणोपासको जातोऽभिगत-जीवाजीवो यावद्विहरति / शब्दार्थ-तए णं से महासयए—तदनन्तर वह महाशतक, समणोवासए जाए-श्रमणोपासक हो गया। अभिगय-जीवाजीवे जाव विहरइ यावत् जीवाजीव का जानकार होकर विचरने लगा। भावार्थ महाशतक श्रमणोपासक हो गया और जीवाजीव का ज्ञाता होकर विचरने लगा। मूलम् तए णं समणे भगवं महावीरे बहिया जणवयविहारं विहरइ // 237 // छाया ततः खलु श्रमणो भगवान् महावीरो बहिर्जनपदविहारं विहरति / शब्दार्थ तए णं समणे भगवं महावीरे—एक दिन * श्रमण भगवान् महावीर, बहिया जणवय-विहारं विहरइ—अन्य जनपदों में विचरने लगे। भावार्थ इसके बाद श्रमण भगवान् महावीर विहार कर गए और अन्य जनपदों में विचरने लगे। रेवती का क्रूर अध्यवसायमूलम् तए णं तीसे रेवईए गाहावइणीए अन्नया कयाइ पुव्वरत्तावरत्त कालसमयंसि कुडुम्ब जाव इमेयारूवे अज्झथिए ४–“एवं खलु अहं इमासिं दुवालसण्हं सवत्तीणं विघाएणं नो संचाएमि महासयएणं समणोवासएणं सद्धिं उरालाई माणुस्सयाइं भोगभोगाई भुञ्जमाणी विहरित्तए / तं सेयं खलु ममं एयाओ दुवालसवि सवत्तियाओ अग्गिप्पओगेणं वा, सत्थप्पओगेणं वा विसप्पओगेणं वा जीवियाओ ववरोवित्ता एयासिं एगमेगं हिरण्ण-कोडिं, एगमेगं वयं सयमेव उवसम्पज्जित्ता णं महासयएणं समणोवासएणं सद्धिं उरालाई जाव विहरित्तए" एवं संपेहेइ, संपेहित्ता तासिं दुवालसण्हं सवत्तीणं अंतराणि य, छिद्दाणि य, विवराणि य पडिजागरमाणी विहरइ // 238 // श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 334 / महाशतक उपासक, अष्टम अध्ययन
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy