________________ टीका श्रमणोपासक सद्दालपुत्र पौषधशाला में भगवान् महावीर द्वारा प्रज्ञापित धर्म की आराधना कर रहे थे। आधी रात के समय एक देव उनके समीप आया। उसके पास नील-कमल के समान चमचमाती तलवार थी। अत्यन्त क्रुद्ध होकर वह सद्दालपुत्र से बोला यदि तू शीलादि व्रतों का परित्याग नहीं करता तो मैं तेरे पुत्रों को मार डालूंगा, इत्यादि कहकर चुलनीपिता के समान ही देव ने सद्दालपुत्र को नाना प्रकार के उपसर्ग किए। दैवी माया के कारण सद्दालपुत्र को ऐसा प्रतीत हुआ कि उसके तीनों पुत्र मार डाले गए हैं तथा उसके शरीर को रुधिर तथा मांस से छींटे दिए जा रहे हैं। यह भीषण दृश्य देखकर और देवकृत नाना उपसर्गों-कष्टों को सहकर भी सद्दालपुत्र निर्भय बना रहा और अपनी समाधि से विचलित नहीं हुआ। यह देखकर देव ने चौथी बार कहा—“यदि तू अब भी शीलादि को भंग नहीं करेगा तो मैं तेरी भार्या अग्निमित्रा जो कि धर्म में तेरी सहायिका है, धर्म-वैद्या है तथा धर्म के अनुराग में रंगी हुई है, घर से लाकर तेरे सामने मार डालूंगा। तेल से भरे कड़ाहे में तलकर उसके मांस और रुधिर से तेरे शरीर को छींटूंगा। जिससे तू अत्यन्त दुखी होकर मर जाएगा।" इस पर सद्दालंपुत्र के मन में विचार हुआ कि जिसने मेरे सब पुत्रों को मार डाला, और जो मेरी धर्म तथा सुख-दुख में सहायक पत्नी को भी मार डालना चाहता है, ऐसे अनार्य पुरुष को पकड़ लेना चाहिए। यह विचार कर सद्दालपुत्र ज्यों ही देव को पकड़ने के लिए उठा, वह अदृश्य हो गया। अग्निमित्रा कोलाहल सुनकर आई और उसने सद्दालपुत्र से यथार्थ बात कही और बताया कि यह सब देव-माया थी। वास्तव में कुछ नहीं हुआ। तेरे सभी पुत्र आराम से सोए हुए हैं। इस माया के कारण तुम अपने व्रतों से विचलित हो गए हो। अतः तुम इसके लिए आलोचना तथा प्रायश्चित द्वारा आत्मशुद्धि करो। सद्दालपुत्र ने आत्मशुद्धि की और क्रमशः श्रावक की ग्यारह प्रतिमाएं अङ्गीकार की। अन्त में संलेखना द्वारा शरीर त्यागकर के अरुणभूत नामक विमान में उत्पन्न हुआ, वहां की आयुष्य पूरी करके महाविदेह क्षेत्र में उत्पन्न होगा और सिद्धि प्राप्त करेगा। प्रस्तुत वर्णन में अग्निमित्रा भार्या के जो गुण बताए गए हैं वे महत्वपूर्ण हैं। जो इस प्रकार हैं 1. धम्म-सहाइया—अग्निमित्रा धर्म-कार्यों में सद्दालपुत्र की सहायता करती थी। उनमें बाधा नहीं डालती थी। इतना ही नहीं, प्रत्येक धर्म-कार्य में प्रोत्साहन देती थी। 2. धम्मविइज्जिया-(धर्म-वैद्या) वह धार्मिक जीवन के लिए वैद्य के समान थी। अर्थात् किसी प्रकार की शिथिलता या दोष आने पर उसे दूर कर देती थी और धार्मिक अर्थात् आध्यात्मिक स्वास्थ्य के लिए प्रेरणा करती रहती थी। 3. धम्माणुराग-रत्ता—(धर्मानुरागरक्ता) धर्म के प्रेम में रंगी हुई थी अर्थात् धर्म उसके बाह्य जीवन में ही नहीं, हृदय में भी उतरा हुआ था। धर्मानुष्ठान स्वयं करने में तथा दूसरों से कराने में उसे आनन्द आता था। श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 326 / सद्दालपुत्र उपासक, सप्तम अध्ययन