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________________ तेरे शरीर पर छीटे दूंगा, जिससे तू चिन्तित, दुखी तथा विवश होकर असमय में ही प्राणों से हाथ धो बैठेगा। मूलम् तए णं से सद्दालपुत्ते समणोवासए तेणं देवेणं एवं वुत्ते समाणे अभीए जाव विहरइ // 228 // छाया–ततः खलु स सद्दालपुत्रः श्रमणोपासकस्तेन देवेनैवमुक्तः सन्नभीतो यावद् विहरति / शब्दार्थ तए णं तदनन्तर, से सद्दालपुत्ते समणोवासए—वह श्रमणोपासक सद्दालपुत्र, तेणं देवेणं—उस देव द्वारा, एवं वुत्ते समाणे—इस प्रकार कहे जाने पर भी, अभीए जाव विहरइ–निर्भय यावत् समाधि में स्थिर रहा। भावार्थ देव द्वारा इस प्रकार कहने पर भी सद्दालपुत्र समाधि में स्थिर रहा। मूलम् तए णं से देवे सद्दालपुत्तं समणोवासयं दोच्चंपि तच्चंपि एवं वयासी—“हं भो सद्दालपुत्ता! समणोवासया!' तं चेव भणइ // 226 // ___ छाया–ततः खलु स देवः सद्दालपुत्रं श्रमणोपासकं द्वितीयमपि तृतीयमप्येवमवादीत् हंभोः सद्दालपुत्र! श्रमणोपासक! तदेव भणति / शब्दार्थ तए णं तदनन्तर, से देवे—उस देव ने, साद्दलपुत्तं समणोवासयं श्रमणोपासक सद्दालपुत्र को, दोच्चंपि तच्चंपि एवं वयासी दूसरी और तीसरी बार इसी प्रकार कहा—ह भो सद्दालुपत्ता समणोवासया! हे श्रमोंपासक सद्दालपुत्र!, तं चेव भणइ—वही बात दुहराई। भावार्थ-देव ने सद्दालपुत्र को दूसरी तथा तीसरी बार भी यही कहा। मूलम् तए णं तस्स सद्दालपुत्तस्स समणोवासयस्स तेणं देवेणं दोच्चंपि तच्चंपि एवं वुत्तस्स समाणस्स अयं अज्झथिए समुप्पन्ने४ एवं जहा चुलणीपिया! तहेव चिंतेइ / “जेणं ममं जेठं पुत्तं, जेणं ममं मज्झिमयं पुत्तं, जेणं ममं कणीयसं पुत्तं जाव आयंचइ, जावि य णं मम इमा अग्गिमित्ता भारिया समसुहदुक्ख-सहाइया, तंपि य इच्छइ, साओ गिहाओ नीणित्ता ममं अग्गओ घाएत्तए / तं सेयं खलु ममं एयं पुरिसं गिण्हित्तए त्ति" कटु उद्धाइए / (जहा चुलणीपिया तहेव सव्वं भाणियव्वं नवरं) अग्गिमित्ता भारिया कोलाहलं सुणित्ता भणइ / सेसं जहां चुलणीपियावत्तव्वया, नवरं अरुणभूए विमाणे उववन्ने जाव महाविदेहे वासे सिज्जिहिइ / निक्खेवओ // 230 // || सत्तमस्स अङ्गस्स उवासगदसाणं सत्तमं सद्दालपुत्तमज्झयणं समत्तं // ____ छाया ततः खलु तस्य सद्दालपुत्रस्य श्रमणोपासकस्य तेन देवेन द्वितीयमपि तृतीयमप्येवमुक्तस्यसतोऽयमाध्यात्मिकः 4 समुत्पन्नः- “एवं यथा चुलनीपिता तथैव चिन्तयति, येन मम ज्येष्ठं पुत्रं, येन | श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 327 / सद्दालपुत्र उपासक, सप्तम अध्ययन /
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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