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________________ सद्दालपुत्र के समीप, पुव्वरत्तावरत्त काले—आधी रात्रि के समय, एगे देवे पाउब्मवित्था—एक देव प्रकट हुआ। भावार्थ इसके बाद अर्धरात्रि में उस सद्दालपुत्र के पास एक देव प्रकट हुआ। मूलम् तए णं से देवे एगं महं नीलुप्पल जाव असिं गहाय सद्दालपुत्तं समणोवासयं एवं वयासी (जहा चुलणीपियस्स तहेव देवो उवसग्गं करेइ / नवरं एक्केक्के पुत्ते नव मंस-सोल्लए करेइ) जाव कणीयसं घाएइ, घाइत्ता जाव आयंचइ // 225 // छाया ततः खलु स देव एकं महान्तं नीलोत्पल यावद् असिं गृहीत्वा सद्दालपुत्रं श्रमणोपासकमेवमवादीत् यथा चुलनीपितुस्तथैव देव उपसर्गं करोति / नवरमेकैकस्मिन् पुत्रे नव मांसशूल्यकानि करोति, यावत् कनीयांसं घातयति, घातयित्वा यावदासिञ्चति / शब्दार्थ तए णं तदनन्तर, से देवे—उस देव ने, एगं महं नीलुप्पल-नीले कमल के समान एक बड़ी, जाव—यावत् चमकती हुई, असिं गहाय-तलवार लेकर, सद्दालपुत्तं समणोवासयं एवं वयासी श्रमणोपासक सद्दालपुत्र को इस प्रकार कहा—जहा चुलणीपियस्स तहेव देवो उवसग्गं करेइ–चुलनीपिता श्रावक के समान देव ने उपसर्ग किये, नवरं—विशेषता इतनी है कि, एक्के-क्के पुत्ते प्रत्येक पुत्र के, नव मंस सोल्लए करेइ-मांस के नौ-नौ टुकड़े किए, जाव कणीयसं घाएइ—यावत् सबसे छोटे पुत्र को भी मार डाला, घाइत्ता जाव आयंचइ–मारकर सद्दालपुत्र के शरीर पर मांस और रुधिर के छींटे दिए। भावार्थ—उस देव ने नील कमल के समान प्रभा वाली विशाल तलवार लेकर, चुलनीपिता के समान समस्त उपसर्ग किये। केवल इतना अन्तर है कि प्रत्येक पुत्र के नौ टुकड़े किये। यावत् सबसे छोटे पुत्र को मार डाला और सद्दालपुत्र के शरीर पर मांस तथा रुधिर से छींटे दिये / मूलम् तए णं से सद्दालपुत्ते समणोवासए अभीए जाव विहरइ // 226 // / छाया ततः खलु स सद्दालपुत्रः श्रमणोपासकोऽभीतो यावद्विहरति। शब्दार्थ-तए णं तदनन्तर, से सद्दालपुत्ते समणोवासए वह श्रमणोपासक सद्दालपुत्र, अभीए जाव विहरइ–भयरहित यावत् ध्यानस्थ रहा। .. भावार्थ फिर भी श्रमणोपासक सद्दालपुत्र निर्भय यावत् समाधिस्थ रहा। मूलम्—तए णं से देवे सद्दालपुत्तं समणोवासयं अभीयं जाव पासित्ता चउत्थंपि सद्दालपुत्तं समणोवासयं एवं वयासी—“हंभो सद्दालपुत्ता! समणोवासया! अपत्थियपत्थया! जाव न भंजसि तओ ते जा इमा अग्गिमित्ता भारिया धम्म-सहाइया, धम्म श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 325 / सद्दालपुत्र उपासक, सप्तम अध्ययन /
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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