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________________ गुण कीर्तन किया जाए तो उससे सर्वोत्कृष्ट निर्जरा रूप फल की प्राप्ति होती है। गोशालक ने जो भगवान महावीर की स्तुति की थी वह अभिलाषा रहित न थी। इसलिए उसे मुख्य फल अर्थात् निर्जरा फल की प्राप्ति न होकर गौण फल अर्थात् प्रातिहारिक रूप में पीठ फलक आदि प्राप्त हुए। __ गोशालक ने सद्दालपुत्र को निर्ग्रन्थ प्रवचन से स्खलित करने के लिए अनेक प्रकार के आख्यानों, प्रज्ञापनाओं, विविध प्ररूपणाओं तथा अनुनयपूर्ण वचनों द्वारा भरसक प्रयत्न किया, किन्तु वह सफल न हो सका, इसी अभिप्राय को सूचित करने के लिए सूत्रकार ने 'संते तंते परितंते' पद दिए हैं। . मूलम् तए णं तस्स सद्दालपुत्तस्स समणोवासयस्स बहूहिं सील. जाव भावेमाणस्स चोइस संवच्छरा वइक्कंता / पण्णरसमस्स संवच्छरस्स अंतरा वट्टमाणस्स पुव्वरत्तावरत्तकाले जाव पोसहसालाए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्म-पण्णत्तिं उवसंपज्जित्ताणं विहरइ // 223 // छाया ततः खलु तस्य सद्दालपुत्रस्य श्रमणोपासकस्य बहुभिः शीलव्रतानि यावद् भावयतश्चतुर्दश संवत्सरा व्युत्क्रान्ताः, पञ्चदशं संवत्सरमन्तरा वर्तमानस्य पूर्वरात्रापरत्रकाले यावत् पौषधशालायां श्रमणस्य भगवतो महावीरस्याऽन्तिकी धर्मप्रज्ञप्तिमुपसम्पद्य विहरति / शब्दार्थ तए णं तदनन्तर, तस्स सद्दालपुत्तस्स समणोवासयस्स—उस श्रमणोपासक सद्दालपुत्र के, बहूहिं सील. जाव भावमाणस्स—विविध प्रकार के शीलव्रत, नियम आदि के द्वारा आत्मा को. भावित—संस्कारित करते हुए, चोद्दस संवच्छरा वइक्कंता–चौदह वर्ष व्यतीत हो गए, पण्णरसमस्स संवच्छरस्स अंतरा वट्टमाणस्स—जब पन्द्रहवां वर्ष चल रहा था, पुव्वरत्तावरत्तकाले मध्यरात्रि के समय, जाव—यावत्, पोसहसालाए—पौषधशाला में, समणस्स भगवओ महावीरस्स–श्रमण भगवान् महावीर के, अंतियं धम्मपण्णत्तिं समीप प्राप्त की हुई धर्मप्रज्ञप्ति को, उवसंपज्जित्ताणं विहरइ स्वीकार करके विचरने लगा। भावार्थ श्रमणोपासक सद्दालपुत्र को बहुत से शील यावत् व्रतनियम आदि के द्वारा आत्मा को भावित करते हुए चौदह वर्ष व्यतीत हो गए। पन्द्रहवें वर्ष में अर्धरात्रि के समय यावत् पौषधशाला में श्रमण भगवान महावीर से प्राप्त की हुई धर्मप्रज्ञप्ति का आराधन करते हुए विचरने लगा। मूलम् तए णं तस्स सद्दालपुत्तस्स समणोवासयस्स पुव्वरत्तावरत्तकाले एगे देवे अंतियं पाउब्भवित्था // 224 // __ छाया ततः खलु तस्य सद्दालपुत्रस्य श्रमणोपासकस्य पूर्वरात्रापरत्रकाले एको देवोऽन्तिके प्रादुरासीत् / शब्दार्थ तए णं तदनन्तर, तस्स सद्दालपुत्तस्स समणोवासयस्स अंतियं—उस श्रमणोपासक | श्री उपासक दशांग सूत्रम् / 324 / सद्दालपुत्र उपासक, सप्तम अध्ययन /
SR No.004499
Book TitleUpasakdashang Sutram
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAtmaramji Maharaj, Shiv Muni
PublisherAatm Gyan Shraman Shiv Agam Prakashan Samiti
Publication Year2003
Total Pages408
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & agam_upasakdasha
File Size9 MB
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